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________________ आस्था 95 . . इक आहतप्रशंसयो: -v.ii. 120 आहत=सांचे में ठोककर रूप निखार कर बनाई जाने वाली मुद्राएँ तथा प्रशंसा= स्तुति अर्थों में वर्तमान (रूप प्रातिपदिक से 'मत्वर्थ' में यप् प्रत्यय होता है)। आहाकः-III. 1.74 (निपात अभिधेय हो तो आङ पूर्वक हेव धातु से अप प्रत्यय, सम्प्रसारण तथा वृद्धि भी निपातन से करके) आहाव शब्द सिद्ध होता है, (कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में)। ...आस्था .. -VI. iii. 98 देखें- आशीराशा. VI. 1. 98 ...आस्थित... -VI. iii. 98 देखें-आशीराशा VI. ill. 98 आस्पदम् -VI. 1. 141 (प्रतिष्ठा अर्थ में) आस्पद शब्द में सुट् आगम का निपातन किया जाता है। ...आस्य.. -I.i.9 देखें-तुल्यास्यप्रयत्नम् I.1.9 ....आस्यप्रयत्नम् -I.1.9 देखें- तुल्यास्यप्रयत्नम् I.i.9. ...आस्तु... -III. I. 141 देखें-श्याचधाo. III. I. 141 ...आस्वनाम्-VII. ii. 28 देखें-रुष्यमत्वर VII. 1. 28 आह-III. iv.84 (बू धातु से परे जो लट् लकार, उसके स्थान में जो परस्मैपदसंज्ञक आदि के पांच आदेश,उनके स्थान में क्रम से पांच ही णल,अतुस,उस.थल,अथुस आदेश विकल्प से हो जाते , साथ ही बू धातु को) आह आदेश (भी) हो जाता है। आह -VIII. ii. 35 आह के (हकार के स्थान में थकारादेश होता है. झल परे रहते)। आहत... -v.ii. 120 देखें - आहतप्रशंसयो: V.ii. 120 आहि-v.iii.37 (दिशा,देश तथा काल अर्थों में वर्तमान पञ्चम्यन्तवर्जित सप्तमीप्रथमान्त दिशावाची दक्षिण प्रातिपदिक से) आहि (तथा आच् प्रत्यय होते हैं, 'दूरी' वाच्य हो तो)। आहिताग्न्यादिषु -II. ii. 37 आहिताग्नि आदि शब्दों में (निष्ठान्त का पूर्व प्रयोग विकल्प से होता है)। आहितात् - VIII. iv.8 आहित= शकट इत्यादि वाहनों में जो रखा जाये, वह पदार्थ, तद्वाची (जो पूर्वपद, तत्स्थ निमित्त) से उत्तर (वाहन शब्द के नकार को णकार आदेश होता है)। ...आहियुक्ते -II. iii. 29 देखें- अन्यारादितरते. II. iii. 29 आहृतम् -v.i.76 (तृतीयासमर्थ उत्तरपथ प्रातिपदिक से) 'लाया हुआ (तथा जाता है) अर्थ में (यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता आहो -VIII. 1.49 (अविद्यमान पूर्व वाले) आहो (उताहो) से युक्त (व्यवधान- रहित तिङ् को भी अनुदात्त नहीं होता है)। इ-प्रत्याहार सूत्र । - आचार्य पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में प्रथम प्रत्याहार सूत्र में पठित द्वितीय वर्ण, जो अपने सम्पूर्ण अठारह भेदों का ग्राहक होता है। अष्टाध्यायी में पठित वर्णमाला का दूसरा वर्ण। ३...-VI. iv.77 देखें- यो: VI. iv.77 ३...-VI. iv. 148 देखें- यस्य VI. iv. 148 इ.. -VIII. ii. 15 देखें - इर: VIII. 1. 15 इक् -I.1.44 (यण = य, व, र, ल् के स्थान में जो हो चुका अथवा होने वाला) इक्इ ,उ,ऋ,ल, (उसकी सम्प्रसारण संज्ञा होती है)। यहाँ यण के स्थान में जो इक वर्ण और यण के स्थान में इक करना- यह वाक्यार्थ भी सम्प्रसारण-संज्ञक है।
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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