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________________ है? इसकी जानकारी के लिए गीत स्तवनों के आदिपदों की अनुक्रमणिका दी गई है। संकलन में असावधानी छद्मस्थ होने के कारण स्वाभाविक है कि कई ग्रन्थ कर्ताओं और उनकी कृतियों के नाम छूट गए हों इसके लिए मैं समस्त ग्रन्थकारों से क्षमा चाहता हूँ। साथ ही प्रकाशन में असावधानीवश कुछ स्खलनाएँ रह गई हैं, जैसे:- क्रमांक में २६३६ और २६५६ रिक्त रह गए हैं और २३५२ की पुनरावृत्ति हो गई है। इसी प्रकार प्रूफ संशोधन में भी जो कुछ त्रुटियाँ रह गई हों उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। विद्वद्गण यदि इन त्रुटियों की ओर संकेत करेंगे तो मैं आगामी संस्करण में उसको परिमार्जित कर दूंगा। खेदः- इस कोष की सामग्री के लिए विद्यमान साधुगणों, साध्विगणों को पत्र भी लिखे गये और कइयों को साक्षात में निवेदन भी किया गया किन्तु अपनी-अपनी योजनाओं में व्यस्त रहने के कारण इस कार्य में उनका तनिक भी सहयोग न मिल सका। इसका मुझे हार्दिक खेद है। वर्तमान में पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा निर्मित ग्रन्थों का प्रकाशन नहीं हो रहा है अत: इसका हार्दिक दुःख भी है। हर्षः- हर्ष का विषय है कि २०वीं-२१वीं शताब्दी में श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी महाराज, उपाध्याय श्री सुखसागरजी महाराज, गणि श्री बुद्धिमुनिजी महाराज आदि ने पूर्वाचार्यों के कतिपय ग्रन्थ सम्पादित कर समाज के समक्ष रखे। आज भी अन्य गच्छों के सम्मान्य एवं प्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा पूर्ववर्ती खरतरगच्छ के विद्वानों के ग्रन्थ प्रकाशित किए हैं और कर रहे हैं। जिनमें अग्रगण्य हैं:आगम प्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी म०, प्रवर आगमप्रज्ञ जम्बूविजयजी म०, पुरातत्त्वाचार्य पद्मश्री जिनविजयजी आदि। अधुनापि श्री विजयचन्द्रोदयसूरिजी म०, श्री विजयसोमचन्द्रसूरिजी म० अपने साधु मण्डल एवं शिष्य परिवार के साथ खरतरगच्छ के अनेक प्राचीन ग्रन्थों का सम्पादन कर रहे हैं। आभार:- चारित्र चूड़ामणि परमशान्त मूर्ति पूज्य गुरुदेव श्री जिनमणिसागरसूरिजी महाराज के अपूर्व वात्सल्य और अमोघ आशीर्वाद तथा पूज्य दादागुरुदेवों की असीम कृपा से मेरी हार्दिक मनोभिलाषा जो ५५ वर्षों से चल रही थी उसे यत्किञ्चित् रूप में पूर्ण/फलीभूत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। प्रमुखतः इस कोष के निर्माण में स्वर्गीय साहित्य मनीषी श्री अगरचन्दजी नाहटा, स्वर्गीय साहित्यवाचस्पति श्री भंवरलालजी नाहटा का हृदय से आभारी हूँ कि उनकी नोट-बुक की प्रतिलिपि को आधार लेकर इसको मैं आज विशाल रूप दे सका और उनकी हार्दिक अभिलाषा को पूर्ण कर सका। - ग्रन्थों के प्राप्ति स्रोत में उन-उन ज्ञान भण्डारों के संस्थापक आचार्यों, संचालकों, व्यवस्थापकों, प्रबन्धकों एवं राजकीय संस्थाओं के निदेशकों द्वारा संस्थाओं से प्रकाशित सूची पत्रों तथा ग्रन्थों के प्राक्कथन XLVII Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016106
Book TitleKhartargaccha Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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