SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ही थे। संवत् १९६२ में सुप्रीम कोर्ट लंदन के फैसले से सम्मेतशिखर पहाड़ श्वेताम्बरों के हस्तगत हुआ था। अतः समस्त श्वेताम्बर समाज इनका ऋणी है। उस समय बद्रीदासजी को यह विजय इष्टसाधना के बल पर प्राप्त हुई थी और इस इष्टसाधना के साधक थे पूज्य श्री मणिसागरजी महाराज। ___कोटा के दीवान बहादुर सेठ केसरीसिंहजी बुद्धसिंहजी बाफणा, चेन्नई (फलौदी) के चौधरी सुखलालजी झाबक, लालचन्दजी ढढ्ढा, मोहनचन्दजी ढढ्ढा, फलौदी के फूलचन्दजी झाबक, बीकानेर के चाँदमलजी ढढ्ढा, मङ्गलचन्दजी झाबक, हैदराबाद के इन्द्रचन्दजी सुरेन्द्रकुमारजी लूणिया, कपूरचन्दजी श्रीमाल, बीकानेर के भैंरुदानजी कोठारी, अगरचन्दजी भँवरलालजी नाहटा, दिल्ली के श्री जवाहरलालजी राक्यान, एवं श्री हरखचन्दजी नाहटा, जयपुर के सोहनमलजी महताबचन्दजी गोलेछा, राजरुपजी दुलीचन्दजी टांक, राजमलजी कुशलचन्दजी विमलचन्दजी सुराणा, कलकत्ता के पदीचन्दजी बोथरा, अजमेर के रामलालजी अमरचन्दजी लूणिया आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । स्थानाभाव के कारण कुछ विशिष्य व्यक्तियों के नाम नहीं दिये जा सके हैं। ग्रन्थ आलेखन प्रशस्तियाँ ग्रन्थों के साथ सम्बन्ध रखने वाली प्रशस्तियाँ दो प्रकार की होती हैं:- १. ग्रन्थकार अथवा टीकाकार द्वारा लिखित प्रशस्ति, २. ग्रन्थालेखन प्रशस्तियाँ। (१) कर्ता या टीकाकार द्वारा लिखी हुई प्रशस्तियों में गुरुपरम्परा का वर्णन होता है, जिसका सारांश होता है कि अमुख गच्छ , कुल, शाखा में उत्पन्न आचार्य के शिष्य, प्रशिष्य ने इस संवत् में इस ग्रन्थ की रचना की, साथ ही सहयोगी या संशोधन कर्ताओं और गुरुभ्राता या शिष्यों के नाम होते हैं। ___ (२) ग्रन्थालेखन प्रशस्ति अर्थात् आचार्यों के उपदेश से जो उपासक वर्ग ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवाता है उसका वर्णन होता है। इस प्रकार की प्रशस्तियों में प्रतिलिपि करवाने वाले श्रावक वर्ग अपने पूर्वजों का नामोल्लेख एवं उनकी विशेष धार्मिक कृत्यों का उल्लेख करते हुए, उनकी पूर्व वंश की परम्परा देते हुए और अपनी वर्तमान संतति का उल्लेख करते हुए अपने श्रेष्ठ कृत्यों का वर्णन करता है और ग्रन्थालेखन का उल्लेख करता है, साथ ही किस आचार्य अथवा मुनि के उपदेश से यह प्रतिलिपि करवाई है उनका भी पूर्ववर्ती आचार्यों से लेकर वर्तमान आचार्यों तक का उल्लेख करते हैं। लेखनकाल का तो उल्लेख होता ही है। इस प्रकार की प्रशस्तियाँ कुछ संक्षिप्त होती है तो कुछ ५०६० श्लोकों तक की होती है। इस श्रेणी की कुछ प्रशस्तियों का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है जो कि खरतरगच्छ के आचार्यों एवं उनके अनुयायियों से सम्बन्धित हैं: १. संवत् ११३८ में लिखित आवश्यक विशेष भाष्य की प्रशस्ति में प्रारम्भ में गुरु जिनवल्लभ का उल्लेख करते हुए जिनदेव और जसदेव ने अपनी पूर्व वंश परम्परा का उल्लेख किया है। (द्रष्टव्यजैनपुस्तकप्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, प्रशस्ति संख्या - १) २. संवत् १२८२ में लिखित सटीक हैमानेकार्थसंग्रहप्रशस्ति में धर्कट वंशीय आशपाल जो XLII प्राक्कथन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016106
Book TitleKhartargaccha Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy