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________________ कुछ विशिष्ट पत्रों के आधार पर बाबा ज्ञानसारजी का सम्बन्ध सवाई प्रतापसिंह, जयपुर, बीकानेर नरेश सुरतसिंहजी, किशनगढ़ नरेश आदि से भी व्यक्तिगत सम्बन्ध रहे। महोपाध्याय क्षमाकल्याणजी का भी तत्कालीन जेसलमेर नरेश से निकट का सम्बन्ध रहा। इस प्रकार हम देखते हैं कि राजागणों को उपदेश देकर खरतरगच्छ आचार्यों ने शासन और धर्म की महती प्रभावना की है। उपासक वर्ग भगवान् महावीर के धर्मशासन की यह प्रमुख विशेषता रही है कि उनके स्वहस्त दीक्षित साधु-साध्वियों से दसगुणा अधिक श्रावक-श्राविकाओं की परिगणना रही है। यह संख्या व्रतधारियों की ही है। भगवान् के प्रति श्रद्धाभक्ति रखने वालों की संख्या कहीं अधिक है। जैन धर्म के व्रतों का पालन सूक्ष्मता और कठोरता को लेकर समाज में कुछ कमी आने लगी थी। बदलते समय को देखकर आचार्यों ने भी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को ध्यान में रखकर चारों वर्गों के लोगों को प्रतिबोध देना प्रारम्भ किया। सप्त व्यसन मुक्त समाज की रचना पर उन्होंने प्रमुखता से ध्यान दिया। उपदेश में भी यही प्रवृत्ति रही। उन श्रमणों/आचार्यों के उपदेश से प्रभावित होकर, प्रतिबोध प्राप्त कर निर्व्यसनी होकर लाखों व्यक्ति नये जैन बनने लगे। पूर्वाचार्यों ने जिस ओसवाल वंश और गोत्रों की स्थापना की थी उसको समृद्धि प्रदान करते हुए खरतरगच्छ आचार्यों ने भी अनुपमेय योगदान दिया। जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनकुशलसूरि, उपाध्याय क्षेमकीर्ति और युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने इस क्षेत्र में / जैनीकरण के क्षेत्र में अपने तप-तेज को झोंक दिया। उक्त आचार्यों ने लाखों की संख्या में व्यसन मुक्त जीवन जीने वाले नये-नये उपासक बनाकर ओसवास जाति को अत्यन्त समृद्धि प्रदान की और पृथक्-पृथक् गोत्रों में उनको व्यवस्थित किया। महत्तियाण जाति की तो प्रसिद्धि ही मणिधारी जिनचन्द्रसूरि से हुई। खरतरगच्छीय गोत्रों में ओसवास वंश के ८४, श्रीमाल वंश के ७९ एवं पोरवाड़ और महत्तियाण जाति के १६६ गोत्र खरतरगच्छीय मान्यताओं को स्वीकार कर अनुयायी बने। यहाँ जाति और गौत्रों की उत्पत्ति पर विचार करना अभीष्ट नहीं है किन्तु इस श्राद्ध वर्ग के द्वारा जो-जो विशिष्ट कार्य सम्पन्न हुए हैं उनका संक्षिप्त उल्लेख करना ही अभीष्ट है। खरतरगच्छ के उद्भावक और आचार्य जिनेश्वर और आचार्य बुद्धिसागर जन्मजात जैन नहीं थे किन्तु धारा नगरी के जैन धर्मावलम्बी सेठ लक्ष्मीपति के सान्निध्य से दोनों भाई वर्द्धमानसूरि के शिष्य बने। जिनवल्लभसूरि रचित अष्टसप्तति के अनुसार चित्तोड़ के प्रमुख श्रेष्ठि अम्बड़, केहिल, वर्द्धमान, सोमिलक, वीरदेव, माणिक्य, सुमति, क्षेमसरीय, रासल्ल, धनदेव, वीरम, मानदेव, पद्मप्रभ, पल्लक, साधारण और सढक इत्यादि के नाम प्राप्त होते है जो कि जिनवल्लभसूरि के असाधारण भक्त थे। नागपुर के धनदेव पुत्र पद्मानन्द आदि परिवार के साथ इन्हीं आचार्य का भक्त था। इन्हीं आचार्य द्वारा प्राक्कथन XXXVI Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016106
Book TitleKhartargaccha Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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