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________________ वैदुष्य को प्रकट करें तो हम मानेंगे कि आप वस्तुतः सुविहित विद्वान् हैं। वर्धमानसूरि आदि आचार्यों ने उसकी इस उक्ति को न तो व्यंग माना, न आक्षेप माना और न चोट ही माना। इस करारी चपत को सहज भाव से स्वीकार किया और माँ सरस्वती की साधना में नवीन नवीन विधाओं के ग्रन्थों के निर्माण में शिष्य परिवार सहित जुट गये। आचार्य वर्धमान ने स्वयं आचार्य हरिभद्रसूरि रचित उपदेश पद पर टीका, धर्मदास गणि रचित उपदेश माला पर बृहद्वृत्ति, और सिद्धर्षि कृत उपमितिभवप्रपंचाकथासमुच्चय नाम से ग्रन्थों का निर्माण किया । आचार्य जिनेश्वर षडंगवेत्ता सार्वदेशीय विद्वान् थे । उन्होंने सोचा कि श्वेताम्बरों का कोई दार्शनिक ग्रन्थ नहीं है, महाकवि गुणाढ्य रचित ग्रन्थ के समान कोई आख्यायिका ग्रन्थ नहीं है, कोई कथा ग्रन्थ नहीं है, साधु धर्म और स्वरूप को प्रतिपादन करने वाला कोई ग्रन्थ नहीं है और छन्द-ग्रन्थ नहीं है। अतः हमारा यह प्रयत्न होना चाहिए कि इन सभी विधाओं पर नवीन निर्माण कर श्वेताम्बर सुविहित समाज को खड़ा करना चाहिए । फलतः प्रमालक्ष्म स्वोपज्ञ वृत्ति के साथ दार्शनिक ग्रन्थ की रचना की । वसुदेव हिण्डी के अनुकरण पर निर्वाण लीलावती, साधु और श्रावक के स्वरूप पर पंच लिङ्गी प्रकरण तथा षट्स्थानक प्रकरण, कथाग्रन्थों में कथाकोष नामक स्वोपज्ञ टीका के साथ और हारिभद्रीय अष्टक पर वृत्ति का निर्माण किया । छन्द शास्त्र पर भी अपनी लेखिनी चलाई । जिनेश्वरसूरि के अनुज बुद्धिसागरसूरि भी व्याकरण शास्त्र के प्रौढ़ विद्वान थे और उन्होंने पचांगी के साथ बुद्धिसागर व्याकरण की विक्रम संवत् १०८० में रचना की । श्वेताम्बर समाज का यह प्रथम व्याकरण ग्रन्थ था । कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र भी स्वोपज्ञ लिङ्गानुशासन में इति बुद्धिसागरः कहते हुए इस व्याकरण की महत्ता को स्वीकार किया है, किन्तु खेद है कि आज तक इस व्याकरण का कोई संस्करण नहीं निकला है। जिनेश्वरसूरि के शिष्य धनेश्वरसूरि ने प्राकृत भाषा में संवत् १०९५ में सुरसुन्दरी चरियम् कथा ग्रन्थ की रचना की । आचार्य जिनेश्वर के अन्य शिष्यों जिनचन्द्रसूरि ने संवेगरङ्ग से आप्लावित संवेग रङ्गशाला की रचना संवत् ११२५ के लगभग की । आचार्य जिनेश्वर के ही अन्यतम शिष्य अभयदेवसूरि ने सोचा कि मुझे आगम विषयों पर लेखनी चलानी है, जिस पर कुछ आचार्यों को छोड़कर किसी ने 'कलम न चलाई हो। नौ आगम ग्रन्थों पर कोई टीका प्राप्त नहीं है । अनेक स्थल विसंवादों से परिपूर्ण हो रहे हैं । उन विषम विषयों का उद्घाटन करते हुए, कठिन तपश्चर्या करते हुए स्थानांग, समवायांग, भगवती आदि नवाङ्ग ग्रन्थों पर और औपपातिक उपाङ्ग पर व्याख्याएं रचकर अपना नाम अभय कर दिया। न केवल टीकाओं की रचना ही की अपितु द्रोणाचार्य जैसे प्रौढ़तम चैत्यवासी आचार्य से उन टीका ग्रन्थों पर मोहर लगाकर सर्वजनादृत कर दिया । इनके अतिरिक्त पंचाशक पर व्याख्या और अन्य अनेक स्फुट Jain Education International प्राक्कथन For Personal & Private Use Only IX www.jainelibrary.org
SR No.016106
Book TitleKhartargaccha Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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