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________________ छेद - ६; ५. मूल सूत्र - ४; और ६. चूलिका - २। इस वर्गीकरण के अनुसार आगमों की संख्या ४५ निर्धारित/निश्चित हो गई। दिगम्बर परम्परा द्वारा श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य समस्त आगम-साहित्य का विच्छेद मान लेने से उक्त ११ अंग अमान्य हैं, जबकि द्वादशांगी के वे ही नाम आज भी स्वीकृत हैं। साम्प्रत काल में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा द्वारा ये ४५ आगम पूर्णतः मान्य और प्रामाणिक माने जाते हैं। इसी श्रुत आगम परम्परा को सम्पूर्ण श्वेताम्बर समाज आराधनीय मानता रहा है और इसकी इष्टोपासना करते हुए वर्द्धन और संरक्षण करते हुए अपने जीवन को धन्य मानता आ रहा है। श्रुतोपासना के क्षेत्र में खरतरगच्छ का विशिष्ट अवदान रहा है जो कि उल्लेखनीय और अनुकरणीय है। खरतरगच्छ वर्तमान श्वेताम्बर समाज के समस्त गच्छों में अपना प्रमुख स्थान रखता है और सब गच्छों में प्राचीनतम भी है। इस गच्छ का नाम खरतरगच्छ क्यों पड़ा? इस पर तनिक विचार आवश्यक है। खरतर-विरुद ऐसे ही प्राप्त नहीं हुआ। बड़े-बड़े सुविहित आचार्यों को कठिनतम संघर्ष करना पड़ा। अपने जीवन का भोग देना पड़ा। अपने जीवन को शास्त्र-विहित मर्यादा के अनुरूप रखने के लिए कठिनतम जीवन अपनाना पड़ा। यह केवल पठनीय और विचारणीय ही नहीं अपितु उल्लेखनीय एवं अनुकरणीय भी है। खरतरगच्छ का उद्भव महज संयोग नहीं था अपितु समय की प्रबल मांग थी। भगवान् महावीर द्वारा आदिष्ट साधुचर्या किस प्रकार की होनी चाहिए? उसका सफल रूप शास्त्रों में प्रतिपादित है। कुछ सुविधावादी आचार्यों ने अपवाद मार्ग को ही आचारमार्ग मान लिया और श्रेष्ठ चारित्र से फिसल पढ़े। वही अपवाद मार्ग उनके लिए उत्सर्ग मार्ग बन गया। खान-पान, रहन-सहन, आचार-व्यवहार सब में सुविधावाद नजर आने लगा। प्रारम्भ में कुछ आचार्य ही सुविधावादी थे, किन्तु धीमे-धीमे इस ओर अधिकांश आचार्यों का बहुलता से झुकाव हो गया। विकृत साधुचर्या को प्रतिपादित करने के लिए स्वकीय कल्पित मान्यतानुसार शास्त्रों का निर्माण भी होने लगा और वे ही शास्त्र भगवान् की वाणी के रूप में उपासक वर्ग के सन्मुख भी रखे जाने लगे। फलत: बहुल समुदाय इसका अनुयायी होने लगा, जो कि चैत्यवास के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विशुद्ध क्रियापात्र आचारण सम्पन्न साधु गिनती के ही रह गए। इस दुर्दशा को देखकर आप्त आचार्य हरिभद्र भी इसके विरोध में उठ खड़े हुए किन्तु उस समय आचार्य का यह प्रबल विरोध भी अरण्यरोदन के समान सिद्ध हुआ। चैत्यवासी आचार्य अपने-अपने मठों के साथ गढ़ बनाने लगे। राजाओं को भी अपने वशीकृत कर राज्यों से भी आदेश-पत्र प्राप्त कर लिये कि उनके प्रदेशों में चारित्र-सम्पन्न साधुओं का प्रवेश न हो।' अभोहर देश में चौरासी मठों के अधिपति आचार्य वर्धमान थे। शास्त्र प्रतिपादित साधुचर्या और अपने वर्तमान जीवन को देखकर वे विक्षुब्ध हो उठे और चैत्यवास का त्याग कर क्रियानिष्ठ प्राक्कथन VII Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016106
Book TitleKhartargaccha Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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