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१८२१. प्रश्नोत्तर शतक, उम्मेदचन्द्र / रामचन्द्र वाचक, प्रश्नोत्तर, संस्कृत, १८८४ जयपुर, 'आदि
प्रणम्य तीर्थेशपदः प्रतीक्ष्यात्..., अन्त-दुर्वारविघ्नोत्कटवारणाय...', अ. वर्द्धमान भं., बीकानेर,
खरतरगच्छ भण्डार, जयपुर | १८२२. प्रश्नोत्तर सार संग्रह, समयसुन्दरोपाध्याय / सकलचन्द्रगणि, प्रश्नोत्तर, संस्कृत, १७वीं,
अ., ह. कान्तिविजय संग्रह, बड़ौदा १८२३. प्रश्नोत्तरसार्द्धशतक, क्षमाकल्याणोपाध्याय / अमृतधर्म उ०, प्रश्नोत्तर, संस्कृत, १८५१
जैसलमेर, 'आदि-श्रीसर्वज्ञं नत्वा..., अन्त-श्रीमंतो जिनभक्तिसूरिगुरवश्वान्द्रेकुले...', अ., ह. हरिसागरसूरि ज्ञान भं., पालीताणा, अभय ग्र., बीकानेर, कैलाशसागरसूरि ज्ञान मन्दिर, कोबा
१२७८०-८१ १८२४. प्रश्नोत्तरसार्द्धशतक भाषा, क्षमाकल्याणोपाध्याय / अमृतधर्म उ०, प्रश्नोत्तर, राजस्थानी,
१८५३ बीकानेर, 'आदि-निष्पन्नमानन्दमयैर्निजिनाद्यैः..., अन्त-सय अढार तेपन समयै...',
अ., ह. हरिसागरसूरि ज्ञान भं., पालीताणा, विनय. प्रतिलिपि १८२५. प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतककाव्यम्, जिनवल्लभसूरि / अभयदेवसूरि, काव्य, संस्कृत, १२वीं,
'आदि-क्रमनखदशकोटी..., अन्त–किमपि यदिहाश्लिष्टं क्लिष्टं...', मु., जिनवल्लभसूरि
ग्रन्थावली, पृ. ११३, एम.एस.पी.एस.जी. चे. ट्रस्ट, सम्पादक - म० विनयसागर १८२६. प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतककल्पलतिका टीका, पुण्यसागरोपाध्याय / जिनहंससूरि, काव्य,
संस्कृत, १६४० बीकानेर, 'आदि-शिरसि यस्य चकासति दीपिका..., अन्त-आसीत्पुरा खरतराभिदगच्छनाथ...', अ., ह. विनय संग्रह, कैलाशसागरसूरि ज्ञान मन्दिर, कोबा ९५२५,
१३५५४, हरिसागरसूरि ज्ञान भं., पालीताणा, सम्पादक - म० विनयसागर १८२७. प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतककाव्य अवचूरि, कमलमन्दिर / जिनगुणप्रभसूरि, काव्य, संस्कृत,
१६२७, अ., ह. अभय ग्र., बीकानेर १८२८. प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतककाव्य स्वोपज्ञ वृत्तिसह, साधुसुन्दरोपाध्याय / साधुकीर्त्ति उ०, काव्य,
संस्कृत, १७वीं, 'आदि-प्रकटितगुणसारं भव्यसार प्रसारं..., अन्त-यदिह किमपि कांतं शृिष्टतो
१विशिष्टं... गा. १६२', अ., ह. श्री हर्षचन्द्रसूरि - पार्श्वनाथचन्दगच्छ ज्ञान भं., खम्भात १८२९. प्राकृत शब्द समुच्चय, तिलकगणि, व्याकरण, संस्कृत, १५६९, अ. १८३०. प्राभातिक नामावली, जिनप्रभसूरि / जिनसिंहसूरि, स्तोत्र, संस्कृत, १४वीं, 'आदि
सौभाग्यभाजनमभंगुरु... गा. १०', अ., ह. विनय. प्रतिलिपि, विधि मार्ग प्रपा, पृ. १२८ १८३१. प्रायाश्चित्त विधि, क्षमाकल्याणोपाध्याय / अमृतधर्म उ०, विधि, राजस्थानी, १९वीं बालूचर,
'आदि-स्मारं स्मारं जिनेन्द्रादि..., अन्त–श्रीजिनप्रभसूरीन्द्रैः...', अ., ह. विनय. प्रतिलिपि १८३२. प्रास्ताविक अष्टोत्तरी, ज्ञानसारोपाध्याय / रत्नराज उ०, गीत स्तवन, राजस्थानी, १८८०
बीकानेर, 'आदि-आतमता परमात्मा..., अन्त–इक सय नव...', मु., ज्ञानसार ग्रन्थावली, पृ. १८९
खरतरगच्छ साहित्य कोश
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