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________________ ७२ विष्णु का पूजन भी विहित है अहिर्बुध्न्य उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र का देवता है । इससे गोधन की वृद्धि तथा समृद्धि होती है। 'अहिर्बुध्न्य' ही इसका शुद्ध तथा पुरातन रूप है। ऋग्वेद की दस ऋचाओं में 'अहिर्बुध्न्य' शब्द ( कदाचित् अग्नि या रुद्र ) किसी देवता के लिए प्रयुक्त हुआ है । दे० ऋग्वेद १.१८६, २.३१,६, ५.४१,१६, ६.४९, १४, ६.५०.१४; ७.३४.१७; ७.३५.१३; ७. ३८.५ इत्यादि तथा निर्णयसिन्धु १०.४४ । 1 अहि वृत्र-पुत्ररूपी सर्प वृत्र इन्द्र का सबसे बड़ा शत्रु है तथा यह उन बादलों का प्रतिनिधि या प्रतीक है जो गरजते बहुत किन्तु बरसते कम हैं या एकदम नहीं बरसते । वृत्र को 'नवन्तम् अहिम्' कहा गया है (ऋ० ३० ५.१७.१०) । उसकी माता 'दनु' है जो वर्षा के उन बादलों का नाम है जो कुछ ही बूँदें बरसाते हैं । ऋग्वेद ( १०.१२०.६ ) के अनुसार दनुगो के सात पुत्र है जो अनावृष्टि के दानव कहलाते हैं और आकाश के विविध भागों में छाये रहते है। वृव आकाशीय जल को नष्ट करने वाला कहा गया है। इस प्रकार वृत्र झूठे बादल का रूप है जो पानो नहीं बरसाता इन्द्र विद्युत् का रूप है जिसकी उपस्थिति के पश्चात् प्रभूत जलवृष्टि होती है । वृत्र को अहि भी कहते हैं, जैसा कि बाइबिल में शैतान को कहा गया है । यहाँ हम 'अहि-वृत्र' एवं 'अहि- बुधन्य' की तुलना कर सकते हैं । दोनों का निवास आकाशीय सिन्धु में है ऐसा जान पड़ता है कि दोनों एक ही समान है, केवल अन्तर यह है कि गहराई का साँप ( अहिर्बुध्न्य ) इन्द्र का द्योतक है इसलिए देव है, किन्तु अवरोधक साँप ( अहि- वृत्र ) दानव है | अहि-वृत्र के पैर, हाथ, नाक नहीं हैं ( ऋ० वे० १. ३२. ६-७ ३.१०.८), किन्तु बादल, विद्युत् एवं माया जैसे आयुधों से युक्त वह भयंकर प्रतिद्वन्द्वी है । इन्द्र की सबसे बड़ी वीरता इसके वध एवं इस पर विजय प्राप्त करने में मानी गयी है । इन्द्र अपने वज्र से वृत्र द्वारा उपस्थित की गयी बाधा की दीवार चीरकर आकाशीय जल की धारा को उन्मुक्त कर देता है । अहीन - अहः = एक या अनेक दिन तक होने वाला यज्ञ । अहीना - आस्वस्थ्य - एक ऋषि, जिन्होंने सावित्र ( तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१०, ९.१० ) व्रत या क्रिया द्वारा अमरता प्राप्त की थी। नाम का पूर्वार्ध अहोना ( अ + होना ) " Jain Education International अहिवृत्र - आगम उपर्युक्त उपलब्धि का द्योतक है एवं उत्तरार्ध की तुलना अश्वत्थ से की जा सकती है। अ आ - स्वर वर्णों का द्वितीय अक्षर कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक महत्त्व निम्नांकित बतलाया गया है आकारं परमाश्चर्य ज्योतिर्मयं प्रिये । ब्रह्म (विष्णु) मयं वर्ण तथा समयं प्रिये ॥ पञ्चप्राणमयं वर्ण स्वयं परमकुण्डली ॥ [ हे प्रिये ! आ अक्षर परम आश्चर्यमय है । यह शङ्ख के समान ज्योतिर्मय तथा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रमय है । यह पाँच प्राणों से संयुक्त तथा स्वयं परम कुण्डलिनी शक्ति है । ] वर्णाभिधान तन्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं आकारो विजयानन्तो दीर्घच्छायो विनायकः । क्षीरोदधिः पयोदश्च पायो दीर्घास्थवृत्तको ॥ प्रचण्ड एकजो रुद्रो नारायण इनेश्वरः । प्रतिष्ठा मानदा कान्तो विश्वान्तकगजान्तकः ॥ पितामहो दिगन्तो भूः क्रिया कान्तिश्च सम्भवः । द्वितीया मानदा काशी विघ्नराजः कुजो वियत् ॥ आकाश-वैशेषिक दर्शन में नौ द्रव्य - पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन माने गये हैं । इनमें पांचवां द्रव्य आकाश है, यह विभु अर्थात् सर्वव्यापी द्रव्य है और सब कालों में स्थित रहता है। इसका गुण शब्द है तथा यह उसका समवायी कारण है । आकाशदीप - कार्तिक मास में घी अथवा तेल से भरा हुआ दीपक देवता को उद्देश्य करते हुए किसी मन्दिर अथवा चौरस्ते पर खम्भे के सहारे आकाश में जलाया जाता है । दे० अपरार्क, ३७०,३७२ भोज का राजमार्तण्ड, पृष्ठ ३३० निर्णयसिन्धु, १९५ । । आकाशमुखी एक प्रकार के शैव साधु, जो गरदन को पीछे झुकाकर आकाश में दृष्टि तब तक केन्द्रित रखते हैं, जब तक मांसपेशियां सूख न जायें। आकाश की ओर मुख करने की साधना के कारण ये साधु 'आकादशमुखी' कहलाते हैं । आगम - परम्परानुसार शिवप्रणीत तन्त्रशास्त्र तीन भागों में विभक्त है -आगम, यामल और मुख्य तन्त्र । वाराहीतन्त्र के अनुसार जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, सब कार्यों के साधन, पुरश्चरण, षट्कर्मसाधन और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो उसे आगम कहते हैं। महानिर्वाणतन्त्र में महादेव ने कहा है : - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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