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________________ ६४ सन्तान के निमित्त पूजित होते हैं ( ऋ० १०.१८४.२ )। पौराणिक पुराकथाओं में अश्विनौ का उतना महत्त्व नहीं है, जितना वैदिक साहित्य में । फिर भी अश्विनी- कुमार के नाम से इनकी बहुत सी कथाएँ प्राचीन साहित्य . में उपलब्ध होती है । दे० 'अश्विनीकुमार' । अश्विनी-सत्ताईस नक्षत्रों के अन्तर्गत प्रथम नक्षत्र । अश्विनी से लेकर रेवती तक सत्ताईस तारागण दक्ष की कन्या होने के कारण 'दाक्षायणी' कहलाते हैं। अश्विनी चन्द्रमा की भार्या तथा नव-पादात्मक मेषराशि के आदि चार पाद रूप है, इसके स्वामी देवता अश्वारूढ अश्विनीकुमार हैं। अश्विनीकुमार--आयुर्वेद के आचार्यों में अश्विनीकुमारों की गणना होती है । सुश्रुत ने लिखा है कि ब्रह्मा ने पहले पहल एक लाख श्लोकों का आयुर्वेद (ग्रन्थ ) बनाया, जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उसको प्रजापति ने पढ़ा, प्रजापति से अश्विनीकुमारों ने और अश्विनीकुमारों से इन्द्र ने पढ़ा । इन्द्र से धन्वन्तरि ने और धन्वन्तरि से सुनकर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की । अश्विनीकुमारों ने च्यवन ऋषि को यौवन प्रदान किया। अश्विनीकुमार वैदिक अश्विनौ ही हैं, जो पीछे पौराणिक रूप में इस नाम से चित्रित होने लगे। ये अश्वरूपिणी संज्ञा नामक सूर्यपत्नी के युगल पुत्र तथा देवताओं के वैद्य हैं । हरिवंश पुराण में लिखा है : विवस्वान् कश्यपाज्जज्ञे दाक्षायण्यामरिन्दम । तस्य भार्याभवत्संज्ञा त्वाष्ट्री देवी विवस्वतः ॥ देवौ तस्यामजायेतामश्विनौ भिषजां वरौ। [हे अरिन्दम ! कश्यप से दक्ष प्रजापति की कन्या द्वारा विवस्वान् नामक पुत्र हुआ । उसकी पत्नी त्वष्टा की पुत्री संज्ञा थी। उससे अश्विनीकुमार नामक दो पुत्र हुए जो श्रेष्ठ वैद्य थे ।] दे० 'अश्विन्' । अष्टक-आठ का समूह, अष्ट संख्या से विशिष्ट । यथा गङ्गाष्टकं पठति यः प्रयतः प्रभाते वाल्मीकिना विरचितं सुखदं मनुष्यः ।। [जो मनुष्य प्रभात समय में प्रेमपूर्वक सुख देने वाला, वाल्मीकि मुनि द्वारा रचित गङ्गाष्टक पढ़ता है ।] अच्युतं केशवं विष्णुहरि सत्यं जनार्दनम् । हंसं नारायणञ्चैव एतन्नामाष्टकं शुभम् ।। [ अच्युत, केशव, विष्णु, हरि, सत्य, जनार्दन, हंस, नारायण, ये आठ नाम शुभदायक है।] अश्विनी-अष्ट छाप अष्टका-श्राद्ध के योग्य कुछ अष्टमी तिथियाँ । आश्विन, पौष, माघ, फाल्गुन मासों की कृष्णाष्टमी अष्टका कहलाती हैं । इनमें श्राद्ध करना आवश्यक है। अष्टगन्ध-आठ सुगन्धित द्रव्य, जिनको मिलाकर देवपूजन, यन्त्रलेखन आदि के लिए सुगन्धित चन्दन तैयार किया जाता है। विभिन्न देवताओं के लिए इनमें कुछ वस्तुएं अलग-अलग होती हैं। साधारणतया इनमें चन्दन, अगर, देवदारु, केसर, कपूर, शैलज, जटामांसी और गोरोचन माने जाते हैं। अष्टछाप-पुष्टिमार्गीय आचार्य वल्लभ के काव्यकीर्तनकार चार प्रमुख शिष्य थे तथा उनके पुत्र विट्ठलनाथ के भी ऐसे ही चार शिष्य थे। आठों व्रजभूमि (मथुरा के चारों ओर के समीपी गाँवों) के निवासी थे और श्रीनाथजी के समक्ष गान रचकर गाया करते थे। उनके गीतों के संग्रह को 'अष्टछाप' कहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ आठ मुद्राएँ है । उन्होंने व्रजभाषा में श्री कृष्ण विषयक भक्तिरसपूर्ण कविताएँ रची। उनके बाद सभी कृष्णभक्त कवि व्रजभाषा में ही कविता लिखने लगे। अष्टछाप के कवि निम्नलिखित हुए हैं (१) कुम्भनदास (१४६८-१५८२ ई०) (२) सूरदास (१४७८-१५८० ई०) । कृष्णदास (१४९५-१५७५ ई०) (४) परमानन्ददास (१४९१-१५८३ ई०) (५) गोविन्ददास (१५०५-१५८५ ई०) (६) छीतस्वामी (१४८१-१५८५ ई०) (७) नन्ददास (१५३३-१५८६ ई०) (८) चतुर्भुजदास इनमें सूरदास प्रमुख थे। अपनी निश्छल भक्ति के कारण ये लोग भगवान् कृष्ण के 'सखा' भी माने जाते हैं । परम भागवत होने के कारण ये 'भगवदीय' भी कहलाते हैं । ये लोग विभिन्न वर्गों के थे। परमानन्द कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। कृष्णदास शूद्रवर्ण के थे। कुम्भनदास क्षत्रिय थे किन्तु कृषक का काम करते थे । सूरदास जी किसी के मत में सारस्वत ब्राह्मण और किसी के मत में बह्मभट्ट थे। गोविन्ददास सनाढ्य ब्राह्मण और छीतस्वामी माथर चौबे थे । नन्ददास भी सनाढ्य ब्राह्मण थे। अष्टछाप के भक्तों में बड़ी उदारता पायी जाती है। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' तथा 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में इनका जीवनवृत्त विस्तार से पाया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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