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________________ सोम ६८१ वाराह पुराण के अपराध-प्रायश्चित्त नामक अध्याय में मिलाना । वैदिक साहित्य में इसका विस्तृत और सजीव सेवापराधों की लम्बी सूची पायी जाती है । वर्णन उपलब्ध है। देवताओं के लिए समर्पण का यह सोम-सोम वसुवर्ग के देवताओं में हैं। मत्स्यपुराण मुख्य पदार्थ था और अनेक यज्ञों में इसका बहुविधि उप(५-२१ ) में आठ वसुओं में सोम की गणना इस प्रकार योग होता था। सबसे अधिक सोमरस पीनेवाले इन्द्र और वायु हैं। पूषा आदि को भी यदाकदा सोम अर्पित आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोऽनलः । किया जाता है। प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः ।। स्वर्गीय सोम की कल्पना चन्द्रमा के रूप में की गयी ऋग्वेदीय देवताओं में महत्त्व की दृष्टि से सोम का है। छान्दोग्योपनिषद् (५.१०.४) में सोम राजा को स्थान अग्नि तथा इन्द्र के पश्चात तीसरा है। ऋग्वेद का देवताओं का भोज्य कहा गया है। कौषितकि ब्राह्मण सम्पूर्ण नवाँ मण्डल सोम की स्तुति से परिपूर्ण है। इसमें (७१०) में सोम और चन्द्र के अभेद की व्याख्या इस सब मिलाकर १२० सूक्तों में सोम का गुणगान है। सोम प्रकार की गयी है : "दृश्य चन्द्रमा ही सोम है । सोमलता की कल्पना दो रूपों में की गयी है-(१) स्वर्गीय लता जब लायी जाती है तो चन्द्रमा उसमें प्रवेश करता है। का रस और (२) आकाशीय चन्द्रमा । देव और मानव जब कोई सोम खरीदता हैं तो इस विचार से कि "दृश्य दोनों को यह रस स्फूति और प्रेरणा देनेवाला था। चन्द्र ही सोम है; उसी का रस पेरा जाय।" देवता सोम पीकर प्रसन्न होते थे; इन्द्र अपना पराक्रम सोम का सम्बन्ध अमरत्व से भी है। वह स्वयं अमर सोम पीकर ही दिखलाते थे। काण्व ऋषियों ने मानवों तथा अमरत्व प्रदान करनेवाला है । वह पितरों से मिलता पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है : "यह शरीर है और उनको अमर बनाता है (ऋ० ८.४८.१३)। की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है; रोग दूर करता है; कहीं कहीं उसको देवों का पिता कहा गया है, जिसका विपत्तियों को भगाता है; आनन्द और आराम देता है; आयु अर्थ यह है कि वह उनको अमरत्व प्रदान करता है । बढ़ाता है; सम्पत्ति का संवर्द्धन करता है। विद्वेषों से बचाता अमरत्व का सम्बन्ध नैतिकता से भी है। वह विधि का है; शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है; उल्लास अधिष्ठान और ऋत की धारा है । वह सत्य का मित्र है उत्पन्न करता है। उत्तेजित और प्रकाशित करता है; अच्छे दे० ऋ०९९७ १८.७.१०४ । सोम का नैतिक स्वरूप उस विचार उत्पन्न करता है; पाप करने वाले को समृद्धि का समय अधिक निखर जाता है जब वह वरुण और आदित्य से अनुभव कराता है; देवताओं के क्रोध को शान्त करता है से संयुक्त ोता है : “हे सोम, तुम राजा वरुण के सनातन और अमर बनाता है (दे० ऋग्वेद ८.४८) । सोम विप्रत्व विधान हो; तुम्हारा स्वभाव उच्च और गंभीर है; प्रिय और ऋषित्व का सहायक है (वही ३.४३.५) मित्र के समान तुम सर्वाङ्ग पवित्र हो: तुम अर्यमा के सोम की उत्पत्ति के दो स्थान है-(१) स्वर्ग और समान वन्दनीय हो ।" (ऋ० १.९१३)। (२) पार्थिव पर्वत । अग्नि की भाँति सोम भी स्वर्ग से वैदिक कल्पना के इन सूत्रों को लेकर पुराणों में सोमपृथ्वी पर आया । ऋग्वेद (१९३.६) में कथन है: सम्बन्धी बहत सी पुरा कथाओं का निर्माण हुआ । वाराह"मातरिश्वा ने तुम में से एक को स्वर्ग से पृथ्वी पर पुराण में सोम की उत्पत्ति का वर्णन पाया जाता है : उतारा; गरुत्मान् ने दूसरे को मेघशिलाओं से।" इसी ___ "बह्मा के मानस पुत्र महातपा अत्रि हए जो दक्ष के प्रकार (९.६१.१०) में कहा गया है : “हे सोम, तुम्हारा जामाता थे। दक्ष की सताईस कन्यायें थीं; वे ही सोम जन्म उच्च स्थानीय है; तुम स्वर्ग में रहते हो, यद्यपि की पत्नियाँ हुई। उनमें रोहिणी सबसे बड़ी थी। सोम पृथ्वी तुम्हारा स्वागत करती है। सोम की उत्पत्ति का केवल रोहिणी के साथ रमण करते थे, अन्य के साथ पार्थिव स्थान मूजवन्त पर्वत (गन्धार-कम्बोज प्रदेश) है। नहीं । औरों ने पिता दक्ष के पास आकर सोम के विषय(ऋग्वेद १०.३४.१)। व्यवहार के सम्बन्ध में निवेदन किया। दक्ष ने सोम को सोम रस बनाने की प्रक्रिया नैदिक यज्ञों में बड़े महत्त्व सम व्यवहार करने के लिये कहा । जब सोम ने ऐसा की है। इसकी तीन अवथास्यें है-पेरना. छानना और नहीं किया तो दक्ष ने शाप दिया, "तुम अन्तहित (लुप्त) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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