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________________ सामग-सावणि सामग-सामवेद का गानकर्ता ब्राह्मण । महाभारत (१३. १४९. ७५ ) में विष्णु को भा सामग कहा गया है ) भागवत ( १.४.२१ ) सामवेदज्ञ की ही संज्ञा सामग है : तत्रवेदधरः पैलः सामगो जैमिनिः कविः । वैशम्पायन एवंको निष्णातो यजुषामुत ।। सायुज्य-इसका शाब्दिक अर्थ है सहयोग, सहमिलन अथवा एकत्व ( सयुजो सहयोगस्य भावः )। पाँच प्रकार की मुक्तियों के अन्तर्गत एक मुक्ति का नाम सायुज्य है : सारवा-यह शारदा ( सरस्वती ) का ही एक पर्याय है। इसकी व्युत्पत्ति है : 'सारं ददातीति' अर्थात् जो 'सार' (ज्ञान, विद्यादि ) देती है। 'तिथ्यादितत्त्व' के अनुसार यह व्युत्पत्ति काल्पनिक है। सारनाथ-काशी के सात मील पूर्वोत्तर में स्थित बौद्धों का प्रधान तीर्थ । ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं किया था और यहीं से उन्होंने 'धर्म चक्र प्रवर्तन' प्रारम्भ किया । यहाँ पर सारङ्गनाथ महादेव का मन्दिर भी है जहाँ श्रावण के महीने में हिन्दुओं का मेला लगता है। यह जैन तीर्थ भी है । जैन ग्रन्थों में इसे सिंहपुर कहा गया है । सारनाथ की दर्शनीय वस्तुएँ अशोक का चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, भगवान् बुद्ध का मन्दिर, धामेख स्तूप, चौखण्डी स्तूप, राजकीय संग्रहालय, जैनमन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलगंधकुटी और नवीन विहार है। मुहम्मदगोरी ने इसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था । सन् १९०५ में पुरातत्त्व विभाग ने यहाँ खुदाई का काम प्रारम्भ किया । तब बौद्ध धर्म के अनुयायियों और इतिहास के विद्वानों का ध्या इधर गया। अब सारनाथ बराबर वृद्धि को प्राप्त हो रहा है। सारस्वत-सरस्वती (देवता या नदी) से सम्बन्ध रखने से सम्बन्ध रखने- वाला। सारस्वत प्रदेश हस्तिनापुर के पश्चिमोत्तर में स्थित है । इस देश के निवासी ब्राह्मण भी सारस्वत कहे जाते है जो पञ्चगौड ब्राह्मणों की एक शाखा है-गौड, सारस्वत, कान्यकुब्ज, मैथिल और उत्कल । एक कल्प विशेष का नाम भी सारस्वत है। सारस्वतकल्प-सरस्वती-पूजा का एक विधान । विश्वास है कि इसके अनुष्ठान से अपूर्व विद्या और ज्ञान की उपलब्धि होती है । 'स्वायम्भुव-मातृका-तन्त्र' के सारस्वत पटल में इसका विस्तार से वर्णन पाया जाता है : मन्त्रोद्धारं प्रवक्ष्यामि साङ्गावरणपूजनः । अनन्तं बिन्दुना युक्तं वामगण्डान्तभूषितम् ।। जपेत् द्वादशलक्षंतु मूकोऽपि वाक्पतिर्भवेत् । नाभौ शुभारविन्दञ्च ध्यायेद्दशदलं सुधी ।। तन्मध्ये भावयेन्मन्त्रो मण्डलानां त्रयं चिरम् । रत्नसिंहासनं तत्र वर्णज्योत्स्नामयं पुनः ॥ तस्योपरि पुनायेद्देवीं वागीश्वरी ततः । मुक्तां कान्तिमिमां देवी ज्योत्स्नाजालविकाशिनीम् ।। मुक्ताहारयुतां शुभ्रां शशिखण्डविमण्डिताम् । बिभ्रती दक्षहस्ताभ्यां व्याख्यां वर्णस्य मालिकाम् ।। अमृतेन तथा पूर्ण घटं दिव्यञ्च पुस्तकम् । दधतीं वामहस्ताभ्यां पीनस्तनभरान्विताम् ।। मध्ये क्षीणां तथा स्वच्छां नानारत्नविभूषिताम् । आत्माभेदेन ध्यात्वयं ततः संपूजयेत् क्रमात् ।। मत्स्यपुराण (६६.१-२४) में भी विस्तार से सारस्वतकल्प का वर्णन मिलता है। सारस्वतव्रत-यह संवत्सर व्रत है जिसका मत्स्यपुराण (६६.३-१८) में उल्लेख है। इस व्रत के अनुसार व्रती को अपने अभीष्ट देवता की तिथि के दिन अथवा पंचमी, रविवार या सप्ताह के किसी भी पुनीत दिन दोनों सन्ध्या कालों के समय तथा भोजन के अवसर पर मौन धारण करना चाहिए। भगवती सरस्वती देवी का पूजन करके सधवा नारियों को सम्मानित करना चाहिए । लगभग ऐसे हो श्लोक पद्म-पुराण (५.२२.१७८-१९४) तथा भविष्योत्तर-पुराण (३५.३-१९) में उपलब्ध हैं । सावर्ण-चौदह मनुओं में से द्वितीय। सावर्ण की व्युत्पत्ति है : सवर्णायाः छायायाः अपत्यं पुमान् । देवीभागवत में कथन है : छायासंज्ञासुतो योऽसौ द्वितीयः कथितो मनुः । पूर्वजस्य सवर्णोऽसौ सावर्णस्तेन कथ्यते ।। हरिवंश (९.१९) के अनुसार। पूर्वजस्य मनोस्तात सदृशोऽयमिति प्रभुः । मनुरेवाभवन्नाम्ना सावर्ण इति चोच्यते ।। सावणि-भागवत पुराण (८.१३.८-१७) के अनुसार सावणि अष्टम मनु तथा सूर्य के पुत्र थे : विवस्वतश्च द्वे जाये विश्वकर्मसुते उभे । संज्ञा छाया च राजेन्द्र ये प्रागभिहिते तथा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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