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________________ समालम्भन-सम्पूर्णव्रत अहं ब्रह्मत्यवस्थानं समाधिरिति गीयते ।। साधारण राजा चक्रवर्ती सम्राट हो जाता है । इसके अतिदे० 'योग दर्शन' तथा 'अष्टाङ्ग योग' ।। रिक्त स्वास्थ्य, सम्पत्ति तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है। समालम्भन-एक प्रकार की मागलिक लेपन क्रिया। दे० वायु०, ४९.१२३ । कूर्म० १.४५,४ । अमरकोश में कुङ्कुमादि विलेपन को समालम्भन कहा समुद्रस्नान-पर्व के दिनों में, जैसे पूर्णिमा और अमावस्या गया है । पशुवध को भी समालम्भन कहा गया है : को किन्तु भौमवार और शुक्रवार को छोड़कर समुद्र में 'वृथा पशुसमालम्भं नैव कुर्यान्न कारयेत् ।' स्नान करना चाहिए । व्रती को चाहिए कि वह उक्त दिनों महाभारत, १२.३४.२८ में समुद्र तथा पीपल के वृक्ष का पूजनादि करे किन्तु [ व्यर्थ में पशुवध न करना चाहिए और न कराना उनका स्पर्श कदापि न करे । शनिवार को पीपल का चाहिए ।] स्पर्श किया जा सकता है । सेतुबन्ध (रामेश्वर) में कभी समावर्तन-सोलह संस्कारों में एक । सम्यक् प्रकार से भी स्नान किया जा सकता है, वहाँ स्नान का कभी निषेध (विद्याध्ययन करके आचार्य गृह से अपने गह) लौटना । नहीं है। इसका दूसरा नाम है स्नान', क्योंकि इसमें स्नान मुख्य सम्पद्गौरीव्रत-माघ शुक्ल प्रतिपदा (जैसा कि तमिलप्रतीकात्मक क्रिया है और 'स्नातक' उच्च शिक्षित को नाडु के पञ्चाङ्गों में लिखा हुआ है) को समस्त विवाहित कहते हैं । यह संस्कार आजकल के दीक्षान्त समारोह के नारियों तथा कन्याओं को कुम्भ मास में इस व्रत का समान था। प्राचीन काल में दो प्रकार के ब्रह्मचारी होते आयोजन करना चाहिए। थे-उपकुर्वाण और नैष्ठिक । प्रथम वह था जो अपनी विद्या समाप्तकर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहता सम्पुट-सम्यक् प्रकार से पुटित अथवा भावित किया हुआ। एक जातीय उभय पदार्थों के मध्य में अन्य को रखने की था; दूसरा आजीवन गुरुकुल में रहकर विद्यार्थी जीवन व्यतीत करना चाहता था। प्रथम को आचार्य की आज्ञा विधि सम्पुट है। तन्त्रसार के अनुसार 'सकामः सम्पुटो लेकर समावर्तन करना आवश्यक होता था । विवाह के जाप्यो निष्कामः संपुटं बिना ।' लिये यह प्रवेश पत्र था। विद्या अथवा ज्ञान की उपमा [किसी अभीष्ट सिद्धि के लिए जप करना हो तो सागर से दी जाती थी। उसमें जो स्नान किये हो वह सम्पुट विधि से करना चाहिए; यदि निष्काम जप करना स्नातक था। स्नातक भी तीन प्रकार के होते थे-विद्या हो तो बिना सम्पुट के ।] स्नातक, व्रतस्नातक और उभयस्नातक । जो केवल विद्या सम्पूर्णवत-यह व्रत प्रत्येक त्रुटिपूर्ण तथा अपूर्ण व्रत को पढ़कर गुरुकूल से घर लौट आता था उसे विद्यास्नातक पूर्ण करता है। व्रतकर्ता को उस देव विशेष की सुवर्ण कहते थे । जो विद्या कम पढ़ता था, किन्तु व्रत (तपस्या अथवा रजत प्रतिमा बनवाकर पूजा करनी चाहिए जिसका और शील) का पालन पूरा करता था, वह व्रतस्नातक व्रत अथवा पूजा किसी कारण से अपूर्ण रह गई हो । जिस कहलाता था। जो पूरी विद्या भी प्राप्त करता था और दिन से शिल्पी प्रतिमा का निर्माण प्रारम्भ करे उसी दिन से व्रत का भी पालन करता था, वह उभयस्नातक कहलाता लगातार एक मासपर्यन्त किसी ब्राह्मण द्वारा उस प्रतिमा था। गृह्यसूत्रों और पद्धतियों में समावर्तन का विस्तृत का दुग्ध, दधि, घृत, तरल पदार्थी तथा शुद्ध जल से स्नान वर्णन पाया जाता है । दे० 'संस्कार' । तथा गन्धाक्षत-पुष्पादि से पूजन कराया जाय । उसी देवता समुद्रव्रत-चैत्र शुक्ल प्रतिपद् से आरम्भ कर लगातार सात का नामोच्चारण करते हुए चन्दन मिश्रित जल का अर्घ्य दिनपर्यन्त इस व्रत का आयोजन होना चाहिए । इस दिया जाय तथा प्रार्थना की जाय कि हमारा जो व्रत अवसर पर समुद्ररूपी लवण, दृग्ध, घृत, तक्र, सुगन्धित खण्डित हो गया था वह पूर्ण हो तथा स्वाहा बोलते हुए जल, गन्ने के रस तथा मधुर दधि से नारायण क पूजन आहुतियाँ दी जाय । पुरोहित घोषणा करे कि हे यजमान, करना चाहिए । घृत से हवन करना चाहिए। इस का तुम्हारा अपूर्ण व्रत पूर्ण हो चुका है। पुराण कहता है कि आचरण एक वर्षपर्यन्त होना चाहिए। वर्ष के अन्त में ब्राह्मणों द्वारा घोषित वात को देवगण अपनी सहमति एक गौ का दान विहित है। इस व्रत के आचरण से तथा स्वीकृति प्रदान करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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