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________________ ५२ अर्पण-अलक्ष्मीनाशक स्नान के अनुसार यदि उपर्युक्त समूह में से कोई एक (जैसे, पौष अर्यक्त–पञ्चविंश ब्राह्मण में उल्लिखित वह परिवार जिसके अथवा माघ, अमावस्या, व्यतीपात, श्रवण नक्षत्र, रविवार) सर्पयज्ञ में अर्यक गृहपति एवं आरुणि होता थे । अनुपस्थित हो तो यह महोदय पर्व कहलाता है। अद्ध दिय अर्यमा-वैदिक देवमण्डल का एक देवता। यह सूर्य का ही एक के अवसर पर ब्राह्ममुहर्त में नदी स्नान अत्यन्त पुण्यदायक रूप है । वैदिक काल में अनेक आदित्य वर्ग के देवता थे । होता है। परवर्ती काल में उन सबका अवसान एक देवता सूर्य में हो अर्पण-भक्तिभाव से पूजा की सामग्री देवता के समक्ष निवे गया, जो विना किसी भेद के उन्हीं के नामों, यथा सूर्य, दन करना । गीता के अष्टम अध्याय में कथन है : सविता, मित्र, अर्यमा, पूषा से कहे जाते हैं। आदित्य, यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददाति यत् । विवस्वान् एवं विकर्तन आदि भी उन्हीं के नाम हैं। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ काव्यों में भी अर्यमा का प्रयोग सूर्य के पर्याय के रूप हे अर्जन, जो काम करते, भोजन करते, हवन करते, में हआ है : दान देते, तप करते हो उसे मेरे प्रति अर्पण करो।] प्रोषितार्यमणं मेरोरन्धकारस्तटीमिव । (किरात०) विन्यास के अर्थ में भी वह शब्द प्रयुक्त हुआ है : [जिस प्रकार अर्यमा के अस्त होने पर अन्धकार मेरु कैलासगौरं वृषमारुरुक्षोः की तटी में भर जाता है।] पादार्पणानुग्रहपूतपृष्ठम् ॥ (रघुवंश) अहंन्सम्मान्य, योग्य, समर्थ, अर्हता प्राप्त । प्रचलित अर्थ [ कैलास के समान गौर वर्णवाले नन्दी के ऊपर चढ़ने । क्षपणक, बुद्ध, जिन भी है। के लिए उद्यत शंकरजी के पैर रखने के कारण मेरी पीठ पवित्र हो गयी है।] अलकनन्दा-(अलति = चारों ओर बहती है, अलका, अर्बुद-(१) पञ्चविंश ब्राह्मण में वर्णित सूर्ययज्ञ में ग्राव अलका चासो नन्दा च) कुमारी (त्रिकाण्डशेष) । भारतवर्ष स्तुत् पुरोहित के रूप में अर्बुद का उल्लेख है। स्पष्टतया की गङ्गा (शब्दमाला)। श्रीनगर (गढवाल) के समीप इन्हें ऋषि अर्बुद काद्रवेय समझना चाहिए, जिनका वर्णन भागीरथी गङ्गा के साथ मिली हुई यह स्वनामख्यात नदी ऐतरेय ब्राह्मण (६.१) एवं कौशीतकि ब्राह्मण (२९.१) में है। इसके किनारे कई पवित्र संगमस्थल है । जहाँ मन्दा किनी इसमें मिलती है वहाँ नन्दप्रयाग है; जहाँ पिण्डर मन्त्रद्रष्टा के रूप में हुआ है। (२) यह पर्वतविशेष (आबू) का नाम है। भारत के मिलती है वहाँ कर्णप्रयाग; जहाँ भागीरथी मिलती है प्रसिद्ध तीर्थों में इसकी गणना है। सनातनी हिन्दू और वहाँ देवप्रयाग । इसके आगे यह गङ्गा कहलाने लगती जैन सम्प्रदाय वाले दोनों इसे पवित्र मानते हैं । यह राज है। यद्यपि अलकनन्दा का विस्तार अधिक है, फिर भी स्थान में स्थित है। गङ्गा का उद्गम भागीरथी से ही माना जाता है। दे० अर्य-यह शब्द साहित्य में विशेष व्यवहृत नहीं है। वेद 'गङ्गा'। भाष्यकार महीधर इसका अर्थ वैश्य लगाते हैं, साधारणतः अलक्ष्मी---दरिद्रा देवी, लक्ष्मी की अग्रजा. जो लक्ष्मी नहीं 'आर्य' नहीं लगाते । यद्यपि 'अर्य' का अर्थ वैश्य परवर्ती है। यहाँ पर 'न' विरोध अर्थ में है । यह नरकदेवता काल में प्रचलित रहा है, किन्तु यह निश्चित नहीं है कि निर्ऋति, जेष्ठादेवी आदि भी कही जाती है (पद्मपुराण, यह मौलिक अर्थ है। फिर भी इसका बहप्रचलित अर्थ उत्तर खण्ड)। उसका विवरण 'जेष्ठा' शब्द में देखना 'वैश्य' ही है। वाजसनेयी संहिता में इसका प्रयोग इस चाहिए । दीपावली की रात्रि को उसका विधिपूर्वक पूजन अर्थ में मिलता है : कर घर में से बिदा कर देना चाहिए। यथेमां वाचं कल्याणीमा वदानि जनेभ्यः अलक्ष्मीनाशक स्नान-पौष मास की पूर्णिमा के दिन जब ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च । पुष्य नक्षत्र हो, श्वेत सर्षप का तेल मर्दन कर मनुष्यों [ इस कल्याणी वाणी को मैं सम्पूर्ण जनता के लिए को यह स्नान करना चाहिए । इस प्रकार स्नान करने से बोलता हूँ-ब्राह्मण, राजन्य, शूद्र और अर्य (वैश्य) दारिद्रय दूर भागता है। तब भगवान् नारायण की मूर्ति के लिए।] का पूजन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त इन्द्र, चन्द्रमा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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