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________________ श्रीवत्साङ्कमिश्र (कूरेश स्वामी)-श्रीतधर्म वे शुद्ध काञ्चन के समान विराजती हैं। उनकी भी दो मादनं शिवचन्द्राढ्य शिवान्तं मीनलोचने । भुजाएँ हैं । वे दिव्य रत्नों से विभूषित रहती हैं और हाथ कामराजमिदं भद्रे षड्वर्णं सर्वमोहनम् । में दिव्य कमल धारण करती हैं। इनके पीछे लक्ष्मण की शक्तिबीजं वरारोहे चन्द्राद्यं सर्वमोहनम् ।। मूर्ति भी पायी जाती है। दे० रामपूर्वतापनीयोपनिषद्, एतामुपास्य देवेशि कामः सर्वाङ्गसुन्दरः । ४.७.१० । दे० 'राम'। कामराजो भवेद्देवि विद्येयं ब्रह्मरूपिणी ॥ श्रीवत्साङ्कमिश्र (कूरेश स्वामी)-स्वामी रामानुजाचार्य के तन्त्रसार में इसके ध्यान की विधि इस प्रकार बतायी अनन्य सेवक और सहकर्मी शिष्य । इनका तमिल नाम गयी है : कूरत्तालवन था, जिसका तद्भव कूरेश है । काञ्चीपुरी के बालार्क मण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम् । समीप कूरम ग्राम में इनका जन्म हुआ था। ये व्याकरण, पाशाङ्कुशशरांश्चापं धारयन्तीं शिवां श्रये ।। साहित्य और दर्शनों के पूर्ण ज्ञाता थे । 'पञ्चस्तवी' आदि श्रति-श्रवण से प्राप्त होने वाला ज्ञान । यह श्रवण या तो इनकी भक्ति और कवित्वपूर्ण प्रसिद्ध रचनाएँ है। काञ्ची तत्त्व का साक्षात् अनुभव है, अथवा गुरुमुख एवं परम्परा में ये रामानुज स्वामी के शरणागत हुए और आजीवन से प्राप्त ज्ञान । लाक्षणिक अर्थ में इसका प्रयोग 'वेद' के उनकी सेवा में निरत रहे । लिए होता है । दे० 'वेद' । रामानुज स्वामी जब ब्रह्मसूत्र की बोधायनाचार्य कृत श्रोत्रिय-श्रति अथवा वेद अध्ययन करने वाला ब्राह्मण । वृत्ति की खोज में कश्मीर गये थे, तब कुरेशजी भी उनके पद्मपुराण के उत्तर खण्ड (११६ अध्याय ) में श्रोत्रिय का साथ थे । कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों ने इनको उक्त लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है : ब्रह्मसूत्रवृत्ति केवल पढ़ने को दी थी; साथ ले जाने या जन्मना ब्राक्षागो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते । प्रतिलिपि करने की स्वीकृति नहीं थी। अनधिकारी कश्मीरी वेदाभ्यासी भवेद विप्रः श्रोत्रियस्त्रिभिरेव च ।। पंडितों की अपेक्षा वह रामानुज स्वामी के लिए अधिक [जन्म से ब्राह्मण जाना जाता है, संस्कारों से द्विज, स्पृहणीय थी। किन्तु पंडितों ने उस ग्रन्थ को स्वामीजी वेदाभ्यास करने से विप्र होता है और तीनों से श्रोत्रिय । ] से बलपूर्वक छीन लिया । सुदूर दक्षिण से यहाँ तक की मार्कण्डेय पुराण तथा मनुस्मृति में भी प्रायः श्रोत्रिय की यात्रा को विफल देखकर रामानुज स्वामी को बड़ा खेद यही परिभाषा पायी जाती है । दानकमलाकर में थोड़ी हुआ। उस समय कूरेशजी ने अद्भत स्मृतिशक्ति के बल से भिन्न परिभाषा मिलती है : बोधायनवृत्ति गुरुजी को आनुपूर्वी सुना दी। गुरु-शिष्य एका शाखां सकल्पां वा षड्भिरङ्गरधीत्य च । दोनों ने उसकी प्रतिलिपि तैयार कर ली । पश्चात् काञ्ची षट्कर्मनिरतो विप्रः श्रोत्रयो नाम धर्मवित् ।। लौटकर आचार्य ने इसी वृत्ति के आधार पर ब्रह्मसूत्र के [कल्प के साथ एक वैदिक शाखा अथवा छ: वेदाङ्गों श्रीभाष्य की रचना की थी। के साथ एक वैदिक शाखा का अध्ययन कर षट्कर्म में श्रीविद्या-आद्या महाशक्ति की मन्त्रमयी मूर्ति । वास्तव में __लगा हुआ ब्राह्मण श्रोत्रिय कहलाता है । ] त्रिपुरसुन्दरी ही श्रीविद्या है। इसके छत्तीस भेद है । धर्मशास्त्र में श्रोत्रियों के अनेक कर्तव्यों तथा अधिकारों ज्ञानार्णवतन्त्र में श्रीविद्या के बारे में निम्नाङ्कित वर्णन का वर्णन पाया जाता है। श्राद्ध आदि कर्मों में उनका मिलता है : वैशिष्टय स्वीकार किया गया था। राजा को यह देखना भूमिश्चन्द्रः शिवो माया शक्तिः कृष्णाध्वमादिनी । आवश्यक था कि उसके राज्य में कोई श्रोत्रिय प्रश्रयहीन अर्द्धचन्द्रश्च बिन्दुश्च नवार्णो मेरुरुच्यते ।। न रहे। महात्रिपुरसुन्दर्या मन्त्रा मेरुसमुद्भवाः । श्रौतधर्म-वेदविहित धर्म (श्रुति से उत्पन्न श्रौत )। सकला भुवनेशानी कामेशो बीजमुद्धृतम् ।। मत्स्य पुराण ( १२० अध्याय ) में श्रीत तथा स्मार्त धर्म अनेन सकला विद्याः कथयामि वरानने । का विभेद इस प्रकार किया गया है : शक्त्यन्तस्तूर्यवर्णोऽयं कलमध्ये सुलोचने । धर्मविहितो धर्मः श्रोतः स्मार्तो द्विधा द्विजैः । वाग्भवं पञ्चवर्णाढय कामराजमथोच्यते । दानाग्निहोत्रसम्बन्धमिज्या श्रौतस्य लक्षणम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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