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________________ शङ्कराचार्य अन्त्येष्टि क्रिया की। शृंगेरी मठ से जगन्नाथ पुरी जाकर गोवर्धन मठ की स्थापना की तथा पद्मपादाचार्य को वहाँ का मठाधीश बनाया। पुनः शङ्कराचार्य ने चोल और पाण्ड्य राजाओं की सहायता से दक्षिण के शाक्त, गाणपत्य और कापालिक सम्प्रदायों के अनाचार को नष्ट किया। फिर वे उत्तर भारत की ओर मुड़े। गुजरात आकर द्वारका पुरी में शारदमठ की स्थापना की । फिर प्रचार कार्य करते हुए असम के कामरूप में गये और तान्त्रिकों से शास्त्रार्थ किया। यहाँ से बदरिकाश्रम जाकर वहाँ ज्योतिर्मठ की स्थापना की और त्रोटकाचार्य को मठाधीश बनाया। वहाँ से अन्त में केदार क्षेत्र आये, जहाँ पर कुछ दिनों बाद भारत का यह प्रोज्ज्वल सूर्य ब्रह्मलीन हो गया। ___ उनके विरचित प्रधान ग्रन्थ ये हैं : ब्रह्मसूत्र (शारीरक) भाष्य, उपनिषद् भाष्य ( ईश, केन, कठ, प्रश्न, माण्डूक्य, मुण्डक, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, नृसिंहपूर्वतापनोय, श्वेताश्वतर इत्यादि ), गीताभाष्य, विवेकचूडामणि, प्रबोधसुधाकर, उपदेशसाहस्री, अपरोक्षानुभूति, पञ्चीकरण, प्रपञ्चसारतन्त्र, मनीषापञ्चक, आनन्दलहरी-स्तोत्र आदि। शाङ्करमत-शङ्कर के समय में भारतवर्ष बौद्ध, जैन एवं कापालिकों के प्रभाव से पूर्णतया प्रभावित हो गया था। वैदिक धर्म लुप्तप्राय हो रहा था। इस कठिन अवसर पर शङ्कर ने नैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया । उन्होंने जिस सिद्धान्त की स्थापना की उस पर संसार के बड़े से बड़े विद्वान् और विचारक मन्त्रमुग्ध हैं । यह मत था अद्वैत सिद्धान्त । सभी प्रपञ्च अनात्मा है, उसका आत्मा से सम्बन्ध नहीं है । ज्ञान और अज्ञान-सम्पूर्ण विभिन्न प्रतीतियों के स्थान में एक अखण्ड सच्चिदानन्द धन का अनुभव करना ही ज्ञान है तथा उस सर्वाधिष्ठान पर दृष्टि न देकर भेद में सत्यत्व बुद्धि करना अज्ञान है । साधन-शङ्कर ने श्रवण, मनन और निदिध्यासन को ज्ञान का साक्षात् साधन स्वीकार किया है। किन्तु इनकी सफलता ब्रह्मतत्त्व की जिज्ञासा होने पर ही है तथा जिज्ञासा की उत्पत्ति में प्रधान सहायक दैवी सम्पत्ति है। आचार्य का मत है कि जो मनुष्य विवेक, वैराग्य, शमादि षट् सम्पत्ति और मुमुक्षा, इन चार साधनों से सम्पन्न है, उसी को चित्तशुद्धि होने पर जिज्ञासा हो सकती है। इस प्रकार की चित्तशुद्धि के लिए निष्काम कर्मानुष्ठान बहुत उपयोगी है। भक्ति---शङ्कर ने भक्ति को ज्ञानोत्पत्ति का प्रधान साधन माना है। विवेकचूडामणि में वे कहते हैं'स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधीयते ।' अर्थात् अपने शुद्ध स्वरूप का स्मरण करना ही भक्ति कहलाता है । उन्होंने सगुणोपासना की उपेक्षा नहीं की है। कर्म और संन्यास-शङ्कराचार्य ने अपने भाष्यों में स्थान-स्थान पर कर्मों के स्वरूप से त्याग करने पर जोर दिया है। वे जिज्ञासु एवं बोधवान् दोनों के लिए सर्व कर्मसंन्यास की आवश्यकता बतलाते हैं । उनके मत में निष्काम कर्म केवल चित्त शुद्धि का हेतु है ।। स्मार्तमत-वर्णाश्रम परंपरा की फिर से स्थापना का श्रेय शङ्कर को ही है। उन्हीं के प्रयास से जप, तप, व्रत, उपवास, यज्ञ, दान, संस्कार, उत्सव, प्रायश्चित्त आदि फिर से जीवित हुए। उन्होंने ही पञ्चदेव उपासना की रीति चलायी, जिसमें विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश और देवी, परमात्मा के इन पाँचों रूपों में से एक को प्रधान मानकर और शेष को उसका अङ्गीभूत समझकर उपासना की जाती है । पञ्चदेव उपासना वाला मत इसी लिए स्मार्त कहलाता है कि स्मृतियों के अनुसार यह सबके लिए निर्धारित है। आज भी साधारण सनातनधर्मी इसी स्मार्तमत के मानने वाले समझे जाते हैं। आत्मा एवं अनात्मा-ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखते समय सवर्वप्रथम शङ्कर ने आत्मा तथा अनात्मा का विवेचन करते हए सम्पूर्ण प्रपञ्च को दो भागों में बाँटा है-द्रष्टा और दृश्य । एक वह तत्त्व, जो सम्पूर्ण प्रतीतियों का अनुभव करने वाला है, तथा दूसरा वह, जो अनुभव का विषय है। इनमें समस्त प्रतीतियों के चरम साक्षी का नाम आत्मा है तथा जो कुछ उसका विषय है वह अनात्मा है । आत्मतत्त्व नित्य, निश्चल, निर्विकार, असन, कूटस्थ, एक और निविशेष है। बुद्धि से लेकर स्थूल भूतपर्यन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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