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________________ वेद ५९७ उल्लेख किया है : "तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन मनुष्यान विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजुःसामाथाख्यांश्चतुरो वेदान् पैल-वैशम्पायन-जैमिनिसुमन्तुभ्यः क्रमादुपदिदेश ।" । प्रत्येक वेद से जो वाङ्मय विकसित हुआ उसके चार भाग हैं-(१) संहिता (२) ब्राह्मण (३) आरण्यक और (४) उपनिषद । संहिता में वैदिक स्तुतियाँ संगहीत हैं । ब्राह्मण में मन्त्रों की व्याख्या और उनके समर्थन में प्रवचन दिये हए है। आरण्यक में वानप्रस्थियों के उपयोग के लिए अरण्यगान और विधि-विधान हैं। उपनिषदों में दार्शनिक व्याख्याएँ प्रस्तुत की गयी हैं । वैदिक अध्ययन और चिन्तन के फलस्वरूप उनकी कई शाखाएँ विकसित हुई, जिनके नाम पर संहिताओं के नाम पड़े। इनमें से कालक्रम से अनेक संहिताएँ नष्ट हो गयीं, परन्तु कुछ अब भी उपलब्ध हैं । ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ थीं-(१) शाकल (२) वाष्कल (३) आश्वलायन (४) शांखायन और (५) माण्डूक्य । इनमें अब शाकल शाखा ही उपलब्ध है । शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन और काण्व दो शाखाएँ हैं। माध्यन्दिन उत्तर भारत तथा काण्व महाराष्ट्र में प्रचलित है । कृष्ण यजुर्वेद की इस समय चार शाखाएँ उपलब्ध हैं : (१) तैत्तिरीय (२) मैत्रायणी (३) काठक और (४) कठ । सामवेद को दो शाखाएँ उपलब्ध हैं(१) कौथमी और (२) राणायनीय । अथर्ववेद की उपलब्ध शाखाओं के नाम पैप्पलाद तथा शौनक हैं। (चारों वेदों की जानकारी के लिए उनके नाम के साथ यथास्थान देखिए ।) २) वाकपद की पात्र जिसके द्वारा ईश्वर के आदेशों का विचार हो वह मन्त्र है । इस प्रकार तनादिगण की ही मन् धातु (सत्कारार्थक) में ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने से भी मन्त्र शब्द बनता है, जिसका अर्थ 'मन्यते (सतक्रियते) देवताविशेषः अनेन इति मन्त्रः' है, अर्थात् जिसके द्वारा देवता विशेष का सत्कार हो वह मन्त्र है। वेदार्थ जानने के लिए तीनों व्युत्पत्तियाँ समीचीन जान पड़ती है। परन्तु सबको मिलाकर यही अर्थ निकलता है कि वेद वह है जिसमें ईश्वरीय ज्ञान का प्रतिपादन हो। वेदों का वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया हैत्रिविध और चतुर्विध। पहले में सम्पूर्ण वेदमन्त्रों को तीन वर्गों में विभक्त किया गया है-(१) ऋक् (२) यजुष और (३) साम । इन्हीं तोनों का संयुक्त नाम त्रयी है। ऋक् का अर्थ है प्रार्थना अथवा स्तुति । यजुष का अर्थ है यज्ञ-यागादि का विधान । साम का अर्थ है शान्ति अथवा मंगल स्थापित करने वाला गान । इसी आधार पर प्रथम तीन सहिताओं के नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद पड़े। वेदों का बहप्रचलित और प्रसिद्ध विभाजन चतुर्विध है। पहले वैदिक मन्त्र मिले-जुले और अविभक्त थे । यज्ञार्थ उनका वर्गीकरण कर चार भागों में बाँट दिया गया, जो चार वेदों के नाम से प्रसिद्ध हुएऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद । ऋक्, यजुष् तथा साम को अलग-अलग करके प्रथम तीन वेद बना दिये गये। किन्तु गैदिक वचनों में इनके अतिरिक्त भी बहुत सामग्री थी, जिसका सम्बन्ध धर्म, दर्शन के अतिरिक्त लौकिक कृत्यों और अभिचारों (जादू-टोना आदि) से था। इन सबका समावेश अथर्ववेद में कर दिया गया। इस चतुर्विध विभाजन का उल्लेख वैदिक साहित्य में ही मिल जाता है : यस्मादचो अयातक्षन् यजुर्यस्मादपकषन् । सामानि यस्य लोमानि अथर्वाङ्गिरसो मुखम् । स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः । (अथर्व० १०.४.२०) परन्तु चारों वेदों का सम्यक् विभाजन और सम्पादन वेदव्यास ने किया। यास्क ने निरुक्त (१.२०) और भास्कर भट्ट ने यजुर्नेदभाष्य की भूमिका में इसका उल्लेख किया है । भाष्यकार महीधर ने और विस्तार से इसका "यन और ( वेद का चतुर्विध विभाजन प्रायः यज्ञ को ध्यान में रखकर किया गया था। यज्ञ के लिए चार ऋत्विजों की आवश्यकता होती है-(१) होता (२) अध्वर्यु (३) उद्गाता और (४) ब्रह्मा । होता का अर्थ है आह्वान करने वाला (बुलानेवाला)। होता यज्ञ के अवसर पर विशिष्ट देवता के प्रशंसात्मक मन्त्रों का उच्चारण कर उस देवता का आह्वान करता है । ऐसे मन्त्रों का संग्रह जिस संहिता में है उसका नाम ऋग्वेद है। अध्वर्यु का काम यज्ञ का सम्पादन है। उसके लिए आवश्यक मन्त्रों का संकलन जिस संहिता में है उसका नाम यजुर्वेद है। उद्गाता का अर्थ है उच्च स्वर से गाने वाला, उसके उपयोग के लिए मन्त्रों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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