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________________ अम्बिकेय-अरण्य अथ समानता के पद पर पाते हैं। देवी, उमा, पार्वती, गौरी, अयोग-वाजसनेयी संहिता में उद्धृत शिल्पकारों के दुर्गा, भवानी, काली, कपालिनी, चामुण्डा आदि उनके साथ यह शब्द आया है, जिसका अर्थ संभवतः लोहार है । विविध गुणों के नाम हैं । इनका 'कुमारी' नाम कुमारियों यह मिश्रित जाति (शूद्र पिता व वैश्य माता से उत्पन्न) का का प्रतिनिधित्व करता है। वैसे ही इनका 'अम्बिका' सदस्य हो सकता है। वेबर ने इसका अर्थ दुश्चरित्र स्त्री ( छोटी माता ) नाम भी प्रतिनिधित्वसूचक ही है। लगाया है, जब कि जिमर इसे भ्रातहीन लड़की मानते हैं । अम्बिकेय-अम्बिका का अपत्य पुरुष । कातिकेय, गणेश, अयोध्या-सरयतट पर बसी अति प्राचीन नगरी । यह इक्ष्वाधृतराष्ट्र । (पाणिनि के अनुसार आम्बिकेय ।) कुवंशी राजाओं की राजधानी एवं भगवान् राम का जन्मअम्बुवाचीव्रत-सौर आषाढ़ में जब सूर्य आर्द्रा नक्षत्र के स्थान है। भारतवर्ष की सात पवित्र पुरियों में इसका प्रथम चरण में हो इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है । प्रथम स्थान है : दे० वर्षकृत्यकौमुदी, २८३; भोज का राजमार्तण्ड । अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका । अयम् आत्मा ब्रह्म-'यह आत्मा ही ब्रह्म है'-सिद्धान्त पुरी द्वारावती चैव सप्तता मोक्षदायिकाः ।। वाक्य । यह बृहदारण्यकोपनिषद् (२.५.१९) का मन्त्र (ब्रह्मपुराण, ४.४०.९१; अग्निपुराण, १०९.२४) है और उन महावाक्यों में से एक है जो उपनिषदों के यह मुख्यतः वैष्णव तीर्थ है । तुलसीदास ने अपने रामकेन्द्रीय विषय आत्मा और परमात्मा के अभेद पर प्रकाश चरितमानस की रचना लोकभाषा अवधी में यहीं प्रारम्भ डालते हैं। की थी। यहाँ अनेक वैष्णव मन्दिर हैं, जिनमें रामजन्मअयन-काल-विभाजन में 'अवसर्पिणी' एवं 'उपसपिणी' अर्थ स्थान, कनकभवन, हनुमानगढ़ी आदि प्रसिद्ध है। दो अयनों का है । यह सूर्य के छः मास उत्तर रहने से (उत्त- स्कन्दपुराण (१.५४.६५) के अनुसार इसका आकार रायण) तथा छः मास दक्षिण रहने से (दक्षिणायन) बनता। मत्स्य के समान है । इसका विस्तार एक योजन पूर्व, एक है। प्रत्येक भाग के छः मासों का अर्थ एक अयन होता है। योजन पश्चिम, एक योजन सरयू के दक्षिण और एक योजन अयनव्रत-अयन सूर्य की गति पर निर्भर होते हैं। इनमें तमसा के उत्तर है । तीर्थकल्प (अ० ३४) के अनुसार यह अनेक व्रतों का विधान है । अयन दो हैं-उत्तरायण तथा बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी है । योगिनीदक्षिणायन । ये क्रमशः शान्त तथा क्रूर धार्मिक पूजाओं के तन्त्र (२४ पृ०, १२८-२९) में भी इसका उल्लेख है। लिए उपयुक्त हैं। दक्षिणायन में मातृदेवताओं की प्रति- इसके अनुसार यह बारह योजन लम्बी और तीन योजन माओं के अतिरिक्त भैरव, वराह, नरसिंह, वामन तथा चौड़ी है। यह प्राचीन कोसल की राजधानी थी, जिसकी दुर्गादेवी की प्रतिमाओं की स्थापना होती है । दे० कृत्य- स्थापना मनु ने की थी। रत्नाकर, २१८; हेमाद्रि, चतूवर्गचिन्तामणि, १६; समय- जैन तीर्थकर आदिनाथ का जन्म यहों हुआ था। मयूख, १७३। बौद्ध साहित्य का साकेत यही है। टालेमी ने 'सुगद' और अयास्य आङ्गिरस-इस ऋषि का नाम ऋग्वेद के दो परि- हुयेनसांग ने 'अयुते' नाम से इसका उल्लेख किया है च्छेदों में उल्लिखित है तथा इन्हें अनुक्रमणी में अनेक (वैटर्स : युवा-वांग्स् ट्रैवेल्स इन इण्डिया, पृ० ३५४)। मन्त्रों ( ९.४४.६; १०.६७-६८) का द्रष्टा कहा गया विस्तृत वर्णन के लिए दे० डॉ० विमलचरण लाहा का है। ब्राह्मण-परम्परा में ये उस राजसूय के उद्गाता थे, अयोध्या पर निबन्ध (जर्नल ऑफ गंगानाथ झा रिसर्च जिसमें शनःशेप की बलि दी जानेवाली थी। इनके इंस्टीट्यूट, जिल्द १, १०४२३-४४३)। उद्गीथ (सामगान) दुसरे स्थानों में उद्धृत हैं। कई अरणि-यज्ञाग्नि उत्पन्न करने के लिए मन्थन करने वाली ग्रन्थों में इन्हें यज्ञक्रियाविधान का मान्य अधिकारी लकड़ी । घर्षण से उत्पन्न अग्नि को यज्ञ के लिए पवित्र (पञ्चविंश ब्रा० १४.३, २२;१२, ४; ११.८, १०; बृ० माना जाता है । वास्तव में पार्थिव अग्नि भी मूल में वनों उ० १.३. ८, १९, २४; कौ० ब्रा० ३०.६) बतलाया। में घर्षण के द्वारा ही उत्पन्न हुई थी। यह मूल घटना गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् की वंशावली में अयास्य अब तक यज्ञों के रूपक में सुरक्षित है। आङ्गिरस को आभूति त्वाष्ट्र का शिष्य बताया गया है। अरण्य-आचार्य शङ्कर जैसे समर्थ दार्शनिक थे वैसे ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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