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________________ ' वर्धमान उपाध्याय-वल्लभसम्प्रदाय ५७७ गहस्थ होने की शिक्षा लेना अनिवार्य था। प्रत्येक वर्ण वर्धापनविधि-इस कृत्य का अर्थ है जन्मोत्सव के क्रियाका सदस्य जीविका की आवश्यक शिक्षा इसी अवस्था कलाप । किसी शिशु के लिए यह प्रति मास जन्म वाली या आश्रम में पाता था । वेदादि शास्त्रों के अतिरिक्त, तिथि के दिन होनी चाहिए, किन्तु किसी राजा के क्षत्रिय शस्त्रास्त्र विद्या और वैश्य कारीगरी, पशुपालन, सम्बन्ध में वर्ष में केवल एक बार होनी चाहिए। इस कृषि आदि का काम भी सीखता था। शूद्र भी अपनी अवसर पर सोलह देवियों (कुमुदा, माधवी, गौरी, रुद्राणी, जीविका के अनुकूल गुणों का अभ्यास करता था। साथ । पार्वती आदि) की नील अथवा केसर से एक वृत्त में ही सबको चरित्र की शिक्षा इसी समय मिलती थी। इस __ आकृतियाँ खींची जाँय, जिनके मध्य में सूर्य की भी आकृति आश्रम में ही कर्मविभाग पर ध्यान देना आरम्भ हो । रहे। इस अवसर पर बच्चे को स्नान कराकर बाँस की जाता था। सोलह टोकरियों में मूल्यवान् पदार्थ, खाद्य पदार्थ, फल-फल दूसरी अवस्था अथवा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर भरकर उक्त देवियों को अर्पण करने चाहिए । पश्चात् एक तो मनुष्य अपने-अपने भिन्न-भिन्न कर्म करता ही था। एक देवी के नाम से एक-एक टोकरी का ब्राह्मणों वानप्रस्थाश्रम तपस्या का आश्रम था, भोगविलास का तथा सधवा स्त्रियों को दान कर देना चाहिए । दान करते नहीं । संन्यासाश्रम में भी तपस्या ही थी। इस तरह गृहस्थ । समय देवियों से प्रार्थना की जाय कि कुमुदा आदि देवियाँ के सिवा शेष तीनों आश्रमी अपने भोजनाच्छादन के लिए हमारे पुत्र को स्वास्थ्य, सुख तथा दीर्घायु प्रदान करें। यद्यपि गृहस्थ के भरोसे रहते थे, तथापि उनकी आवश्यक देवी की पूजा में उच्च स्वर से वैदिक मंत्रों का उच्चारण ताएं बहुत थोड़ी होती थीं । नियमतः वे थोड़ा पहनते थे, करना चाहिए । गीत, नृत्यादि मांगलिक कार्यों का भी थोड़ा खाते थे। उनका जीवन समाज पर बोझ नहीं विधान है। इन सब कृत्यों के बाद बच्चे के माता-पिता अपने सम्बन्धियों के साथ भोजन करें । राजा के विषय प्रतीत होता था। में इन्द्र तथा लोकपालों के नाम से हविष्यान्न की गृहस्थाश्रम के अधिकारी चारों वर्गों के लोग थे। आहुतियाँ दी जाँय । ब्रह्मचर्याश्रम के तीन वर्ण के लोग (शूद्र को छोड़कर) तथा वर्षव्रत-चैत्र शक्ल नवमी को इस व्रत का प्रारम्भ होता वानप्रस्थाश्रम के अधिकारी केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय है। हिमवान्, हेमकूट, शृंगवान्, मेरु, माल्यवान्, गन्धथे । संन्यासाश्रम के अधिकारी केवल ब्राह्मण थे। इस मादन आदि वर्षपर्वतों की पूजा इस दिन करनी चाहिए । प्रकार आश्रम के हिसाब से सबसे बड़ी संख्या गृहस्थों की उपवास का भी विधान है । व्रत के अन्त में जम्बू द्वीप थी। उनके बाद ब्रह्मचारी थे, वानप्रस्थ उनसे कम और का चाँदी का मण्डल दान में दिया जाय। इससे समस्त संन्यासी उनसे भी कम । फिर तपस्या का जीवन इतना मनःकामनाओं की पूर्ति तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है। लोकप्रिय नहीं था और ममता छोड़ संसार त्यागकर वल्लभ सम्प्रदाय -वल्लभ सम्प्रदाय के संस्थापक वल्लभासन्यासी होना तो सबसे कठिन था । इसीलिए इन आश्रमों चार्य (१४७९-१५३१ ई० ) तैलङ्ग ब्राह्मण थे, इनका में लोग अपनी-अपनी श्रद्धानुसार प्रवेश करते थे। यही जन्म काशी की ओर हुआ। पिता लक्ष्मण भट्ट विष्णुस्वामी बात थी कि वैश्य और क्षत्रिय ब्रह्मचर्याश्रम के अधि सम्प्रदाय के अनुयायी थे। आरम्भ में आचार्य वल्लभ कारी होते हुए भी कम ही उस आश्रम में जाते थे । संस्कृत की शिक्षा प्राप्त कर वर्षों तक तीर्थाटन करते रहे __ वर्णाश्रमों के विशिष्ट धर्म सूत्रग्रन्थों में, स्मृतियों में, तथा विद्वानों के साथ शास्त्र चर्चा करने में समय बिताते पुराणों में, तन्त्रों में और महाभारत में भी प्रसंगानुसार रहे । कृष्णदेव (विजयनगर के राजा, १५०९-२९ ई०) की जहाँ-तहाँ विस्तार से बतलाये गये हैं। राजसभा में इनके द्वारा स्मार्त विद्वानों को हराने की वर्धमान उपाध्याय-न्याय दर्शन के एक आचार्य। इन्होंने घटना विशेष उल्लेखनीय है। इनके जीवन की अनेक उदयनाचार्य विरचित 'तात्पर्यपरिशुद्धि' की टीका लिखी घटनाओं के बारे में विशेष कुछ ज्ञात नहीं है, न यह ज्ञात है जिसका नाम 'प्रकाश' है। इसका पूरा नाम 'न्याय- है कि किस कारण इन्होंने इस सम्प्रदाय की स्थापना निबन्धप्रकाश' है । यह १२वीं शती की रचना है। की, क्योंकि इनका प्राचीन विष्णुस्वामी सम्प्रदाय से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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