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________________ लोहिताहि-वज्र ५७१ विजयेच्छु राजा आक्रमण के लिए प्रयाण करता था, उस आरण्यक में भी एक लौहित्य या लोहिक्य नामक आचार्य समय उसके शरीर को पवित्र जल से अभिषिञ्चित किया का उल्लेख है। जाता था, अथवा दीपों की पंक्तियों को नाराजना के रूप (२) ब्रह्मपुत्र के ऊपरी प्रवाह का नाम लौहित्य है । में उसके चारों ओर घुमाया जाता था। यह कार्य उस भारत के पवित्र नदों में इसकी गणना है । पूर्वोत्तर समय लोहाभिसारिक कर्म कहलाता था। उद्योगपर्व सीमान्त में यह प्रवाहित होता है । दे० 'लौहित्यस्नान' । (१६०.९३) में 'लोहाभिसारो निर्वृत्तः' वाक्य मिलता है। लौहित्यस्नान-ब्रह्मपुत्र नदी में स्नान करने को लौहित्यनीलकण्ठ व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इसमें अस्त्र- स्नान कहते हैं । ब्रह्मपुत्र भारत का पवित्र नद है। इसमें शस्त्रों के सम्मुख दीप प्रज्वलित करके उनकी आरती स्नान करना पुण्यदायक माना जाता है। दे० 'ब्रह्मपुत्रउतारते हुए देवताओं से अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की स्नान' । जाती है। लोहिताहि-लोहित + अहि (लाल साँप) । एक प्रकार के सप का नाम है जिसका उल्लेख यजुःसंहिता के अश्वमेध व-अन्तःस्थ वर्णों का चौथा अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसके यज्ञ की बलितालिका में हुआ है। स्वरूप का वर्णन निम्नांकित है : लौगाक्षि-सामवेद शाखा परम्परा के अन्तर्गत पौष्यञ्जि वकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीमोक्षमव्ययम् । के शिष्य लौगाक्षि सामवेद के शाखाप्रवर्तकों में थे । पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा ।। इनके शिष्य ताण्ड्यपुत्र राणायनीय, सुविद्वान्, मूलचारी ििबन्दुसहितं वर्णमात्मादि तत्त्वसंयुतम् । आदि थे। पञ्चदेवमयं वर्णं पीतविद्यल्लतामयम् ।। लोगाक्षिकाठकगृह्यसूत्र-यजुर्वेदीय गृह्यसूत्रों में लौगाक्षि चतुर्वर्गप्रदं वर्णं सर्वसिद्धिप्रदायकम् । काठकगृह्यसूत्र भी सम्मिलित है, इस पर देवपाल की एक त्रिशक्तिसहितं देवि त्रिबिन्दुसहितं सदा ॥ वृत्ति प्राप्त होती है। वर्णोद्धारतन्त्र में इसका ध्यान इस प्रकार बतलाया लौगाक्षिभास्कर-वैशेषिक तथा न्याय की संयुक्त शाखा का अनुमोदन जिन वैशेषिक तथा नैयायिक आचार्यों के ग्रन्थों कुन्दपुष्पप्रभां देवीं द्विभुजां पङ्कजेक्षणाम् । से हुआ, उनमें लौगाक्षिभास्कर प्रसिद्ध दार्शनिक हुए हैं। शुक्लमाल्याम्बरधरां रत्नहारोज्ज्वलां पराम् ।। ये १६५७ वि० के लगभग वर्तमान थे । कर्ममीमांसा पर साधकाभीष्टदां सिद्धां सिद्धिदां सिद्धसेविताम् । इनका एक ग्रन्थ 'अर्थसंग्रह' और न्याय-वैशेषिक मत पर एवं ध्यात्वा वकारंतु तन्मन्वं दशधा जपेत् ।। अन्य ग्रन्थ ‘पदार्थमाला' प्रसिद्ध है। वंशब्राह्मण--एक ब्राह्मण ग्रन्थ । परिचय सहित यह ग्रन्थ लौरिय कृष्णदास-पन्द्रहवी शताब्दी के प्रारम्भ में उत्पन्न बर्नेल साहब ने मंगलौर से (सन् १८७३-१८७६,१८७७ एक बंगाली कवि । इन्होंने 'भक्तिरत्नावली' का अनुवाद में) प्रकाशित किया था। बँगला में बड़ी योग्यता से किया है। 'भक्तिरत्ना- वगलामुखी-शाक्त मतानुसार दस महाविद्याओं (मुख्य वली' स्वामी विष्णपुरी द्वारा रचित मध्वमत सम्बन्धी देवियों) में एक महाविद्या । 'शाक्तप्रमोद' के अन्तर्गत दसों ग्रन्थ है तथा इसका विषय है भगवद्गीता के भक्तिविषयक महाविद्याओं के अलग-अलग तन्त्र हैं, जिनमें इनकी कथाएँ, सुन्दरतम स्थलों का संग्रह । ध्यान और उपासना विधि दी हुई है । लौ सेन-दे० 'मयूर भट्ट' । वचन-प्रचलित लिङ्गायत मत के अन्तर्गत संग्रहीत प्रारलोहित्य-(१) लोहित के वंशज, जैमिनीय उपनिषद् म्भिक कन्नड उपदेश बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। इन्हें वचन ब्राह्मण के अनेक आचार्यों का पितृबोधक नाम, जिसके कहते हैं । इनमें से कुछ स्वयं आचार्य वसव द्वारा रचित अनुसार लौहित्य कुल का रोचक अध्ययन किया जा सकता है तथा अन्य परवर्ती महात्माओं के हैं। है । यथा कृष्णदत्त, कृष्णरात, जयक, त्रिवेद कृष्णरात, वज्र-(१) इन्द्र देवता का भख्य अस्त्र, जो ऋषि दधीचि दक्ष जयन्त, पल्लिगुप्त, मित्रभृति प्रभृति नाम । शाङ्खायन की अस्थियों से निर्मित क ा जाता है। यह अस्त्र चक्राकार गया है: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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