SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 579
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लक्ष्मण देशिक-लक्ष्मीसंहिता ५६५ लक्ष्मण देशिक-११वीं शताब्दी के एक शाक्त विद्वान् । चार मास तक श्रीधर तथा श्री, कार्तिक से आगे के चार इनका रचा हुआ 'शारदातिलक' नामक तन्त्र ग्रन्थ शाक्तों मास तक केशव तथा भूति का पूजन करना चाहिए। के लिए अत्यन्त प्रामाणिक माना जाता है। पूर्णिमा को रात्रि के समय चन्द्रमा को अर्घ्य देना चाहिए। लक्ष्मणसेन–बङ्गाल का प्रसिद्ध सेनवंशी राजा (१२२७- चार मास वाले प्रति भाग में शरीर की संशुद्धि के लिए १२५० वि०)। यह हिन्दू धर्म व साहित्य का बहुत बड़ा भिन्न प्रकार के द्रव्यों, यथा पञ्चगव्य, दर्भयुक्त जल तथा संरक्षक था। किसी-किसी के मतानुसार निम्बार्काचार्य सूर्य की किरणों से उष्ण किये हए जल का प्रयोग किया इसके प्रश्रय में भी रहे थे। 'गीतगोविन्द' के रचयिता जाना चाहिए। भक्त कवि जयदेव इसकी राजसभा में रहते थे। लक्ष्मीपूजन-कार्तिक की अमावस्या को दीपावली पर्व के लक्ष्मी-ऋग्वेद के पुरुषसुक्त में इनका वर्णन पाया जाता अवसर पर लक्ष्मी के पूजन का विधान है। है : 'श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च इषाण ।' [ हे परमेश्वर, लक्ष्मीप्रदवत-हेमाद्रि ( २. ७६९-७७१ ) के अनुसार यह अनन्त शोभास्वरूप श्री और अनन्त शुभ लक्षणों से युक्त कृच्छ्र व्रतों में है । कार्तिक कृष्ण सप्तमी से दशमी तक व्रती लक्ष्मी दोनों आपकी पत्नी हैं । अर्थात् जैसे स्त्री पति की को क्रमशः दुग्ध, बिल्वपत्र, कमलपुष्प तथा विस ( कमलसेवा करती है, उसी प्रकार आपकी सेवा आप ही को नाल ) का आहार करना चाहिए। एकादशी को उपवास प्राप्त होती है, क्योंकि आप ही ने सब जगत् को शोभा करने का विधान है। इन दिनों केशव की पूजा करनी और शुभ लक्षणों से युक्त कर रखा है। ] आगमसंहि- चाहिए। इससे विष्णुलोक की प्राप्ति होती है । ताओं के रहस्य का विश्लेषण करने से प्रकट होता है कि लक्ष्मीव्रत-(१) प्रति पञ्चमी को उपवास करते हुए लक्ष्मी का पजन करना चाहिए। यह व्रत एक वर्षपर्यन्त चलता ही परमात्मा है, जो अभिन्न हैं । केवल सृष्टि के समय वे है। व्रत के अन्त में सुवर्णकमल तथा गौ का दान विहित भिन्न-भिन्न दृष्टिगोचर होते हैं। है। इससे व्रती प्रति जन्म में धन-सम्पत्ति प्राप्त करके लक्ष्मीधर-(१) लक्ष्मीधर पहले शाक्त आचार्य थे और विष्णुलोक प्राप्त करता है। दक्षिण मार्ग का अनुगमन करते थे। इनका दीक्षानाम (२) इस व्रत में चैत्र शुक्ल तृतीया को उबला हुआ चावल विद्यानाथ था। ये तेरहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में तथा घृताहार करना चाहिए। चतुर्थी को गृह से बाहर वारङ्गल ( आन्ध्र ) में रहते थे। इन्होंने प्रसिद्ध स्तोत्र कमल के पुष्पों से भरे किसी सरोवर में स्नान करना 'सौन्दर्यलहरी' का भाष्य रचा है। इन्होंने सौन्दर्य- चाहिए तथा कमल में ही लक्ष्मीजा का पूजन करना लहरी को शङ्कराचार्य की रचना माना है, जबकि विद्वानों । चाहिए । पञ्चमी को मन्त्रोच्चारण करते हए कमलपुष्पों को इस मत में सन्देह है । सौन्दर्यलहरी के ३१वें श्लोक को लक्ष्मीजी के चरणों में अर्पित किया जाय। पंचमी को की व्याख्या में इन्होंने ६४ तन्त्रों की सूची उपस्थित की पूर्व प्रकार से ही स्नान करके सुवर्ण का दान करना है जो 'वामकेश्वर तन्त्र' की सूची से उद्धत है। साथ ही चाहिए। यह क्रिया वर्ष भर चलनी चाहिए। दो और सूचियाँ 'मिश्र' तथा 'समय' तन्त्रों की उपस्थित लक्ष्मीयामलतन्त्र-यामल शब्द की व्याख्या हो चुकी है । की हैं, जिनमें क्रमशः आठ तथा नौ नाम हैं। आठ यामल तन्त्रों में लक्ष्मीयामल भी एक है। दे० (२) प्रसिद्ध धर्मशास्त्रकार, जो कान्यकुब्ज प्रदेश के 'यामल' । गहडवाल राजा गोविन्दचन्द्र के सान्धिविग्रहिक' ( सन्धि लक्ष्मीश देवपुर-माध्व मत के आचार्य लक्ष्मीश देवपुर ने और युद्ध के मंत्री) थे। इन्होंने 'कृत्यकल्पतरु' नामक १८१७ वि० में 'जैमिनिभारत' नामक ग्रन्थ की रचना बृहत् निबन्ध ग्रन्थ की रचना की। की। इसमें यद्यपि युधिष्ठिर के अश्वमेधयज्ञ का वर्णन है, लक्ष्मीनारायणव्रत-फाल्गुन की पूर्णिमा को इस व्रत का तथापि इस ग्रन्थ का उद्देश्य कृष्ण की महिमा का वर्णन अनुष्ठान होता है। वर्ष के चार-चार महीनों के तीन करना और वैष्णव धर्म का महत्त्व दिखाना है। भागों से प्रारम्भ करके प्रत्येक पूर्णिमा के दिन लक्ष्मीनारा- लक्ष्मीसंहिता-पाञ्चरात्र साहित्य का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ । यण का एक साल तक पूजन करना चाहिए। आषाढ़ से संहिताएँ १०८ हैं, किन्तु इनके रचनाकाल के निर्धारण में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy