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________________ अभिषेचनीय-अ(भ्य)व्यङ्ग यह राम के अन्तिम राज्यारोहण के समय ही पूर्ण हुआ है। था एवं पुरोहित तथा ब्राह्मण दक्षिणा पाते थे । अग्निपुराण यह पुष्याभिषेक का उदाहरण है । अथर्ववेद परिशिष्ट (४), एवं मानसार के अनुसार राजा नगर की प्रदक्षिणा द्वारा वराहमिहिर की बृहत्संहिता (४८) एवं कालिकापुराग इस क्रिया को समाप्त करता था। अग्निपुराण इस अवसर (८९) में बताया गया है कि यह संस्कार चन्द्रमा तथा पर बन्दियों की मुक्ति का भी वर्णन करता है, जैसा कि पुष्य नक्षत्र के संयोग काल (पौषमास) में होना चाहिए। दूसरे शुभ अवसरों पर भी होता था। अभिषेक मन्त्रियों का भी होता था। हर्षचरित में अभिषेचनीय-दे० 'अभिषेक' । राजपरिवार के सभासदों के अभिषेक ( मर्धाभिषिक्ता अभीष्ट तृतीया-यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को प्रारंभ अमात्या राजानः) एवं पुरोहितों के लिए 'बृहस्पतिसव' का होता है । इसमें गौरीपूजन किया जाता है। दे० स्कन्द उल्लेख है। मूत्तियों का अभिषेक उनकी प्रतिष्ठा के समय पुराण, काशीखण्ड, ८३. १-१८ ।। होता था। इसके लिए दूध, जल (विविध प्रकार का). अभीष्ट सप्तमी-किसी भी मास की सप्तमी को यह व्रत गाय का गोबर आदि पदार्थों का प्रयोग होता था। किया जा सकता है। इसमें पाताल, पृथ्वी, द्वीपों तथा बौद्धों ने अपनी दस भमियों में से अन्तिम का नाम सागरों का पूजन होता है । दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 'अभिषेकभमि' अथवा पूर्णता की अवस्था कहा है। अभेदरत्न-वेदान्त का एक प्रकरण-ग्रन्थ जिसकी रचना अभिषेक का अर्थ किसी भी धार्मिक स्नान के रूप में अग्नि सोलहवीं शताब्दी में दाक्षिणात्य विद्वान श्री मल्लनाराध्य पुराण में किया गया है। - अभिषेक की सामग्रियों का वर्णन रामायण, महाभारत, ने की थी। अग्निपुराण एवं मानसार में प्राप्त है। रामायण एवं महा- अभ्य व्यङ्गसप्तमी-श्रावण शुक्ल सप्तमी । इसका कृत्य प्रत्येक भारत से पता चलता है कि वैदिक अभिषेक संस्कार में वर्ष मनाया जाता है, जिसमें सूर्य को 'अव्यङ्ग' समर्पित तब यथेष्ट परिवर्तन हो चुका था । अग्निपुराण का तो किया जाता है । कृत्यकल्पतरु के प्रतकाण्ड (पृ० १५०) में वैदिक क्रिया से एकदम मेल नहीं है । तब तक बहुत से अव्यङ्ग की व्याख्या इस प्रकार की गयी है : “सफेद सूत नये विश्वास इसमें भर गये थे, जिनका शतपथब्राह्मण में के धागे से साँप की केंचुलो के समान पोला अव्यङ्ग बनाया नाम भी नहीं है। अभिषेक के एक दिन पूर्व राजा की जाय। इसकी लम्बाई अधिक से अधिक १२२ अंगुल, शुद्धि की जाती थी, जिसमें स्नान प्रधान था। यह निश्चय मध्यम रूप से १२० अथवा कम से कम १०८ अंगुल होनी ही वैदिकी दीक्षा के समान था, यथा (१) मन्त्रियों की चाहिए।" इसकी तुलना आधुनिक पारसियों द्वारा पहनी नियुक्ति, जो पहले अथवा अभिषेक के अवसर पर की जाती जाने वाली 'कुस्ती' से की जा सकती है। दे० भविष्यथी; (२) राज्य के रत्नों का चुनाव, इसमें एक रानी, एक पुराण (ब्राह्मपर्व), १११.१-८ (कृत्यकल्पतरु के व्रतकाण्ड हाथी, एक श्वेत अश्व, एक श्वेत वृषभ, एक अथवा दो; में उद्धृत); हेमाद्रि, व्रत-खण्ड, जिल्द प्रथम, ७४१-७४३; श्वेत छत्र, एक श्वेत चमर (३) एक आसन (भद्रासन, व्रतप्रकाश (पत्रात्मक ११६)। भविष्यपुराण' (ब्राह्म०) सिंहासन, भद्रपीठ, परमासन) जो सोने का बना होता था १४२. १-२९ में हमें अव्यङ्गोत्पत्ति की कथा दृष्टिगोचर तथा व्याघ्रचर्म से आच्छादित रहता था; (४) एक या होती है । इसके अठारहवें पद्य में 'सारसनः' शब्द आता अनेक स्वर्णपात्र जो विभिन्न जलों, मधु, दुग्ध, घृत, उद है जो हमें 'सारचेन' (एक बाहरी जाति) की स्मृति दिलाता म्बरमल तथा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं से परिपूर्ण होते है। 'अव्यङ्गाख्य व्रत' के लिए दे० नारदपुराण १. ११६, थे । मुख्य स्नान के समय राजा रानी के साथ आसन पर बैठता था और केवल राजपुरोहित ही नहीं अपितु अन्य लगता है कि संस्कृत का अव्यङ्ग शब्द पारसी 'अवेस्ता' मन्त्री, सम्बन्धी एवं नागरिक आदि भी उसको अभिषिक्त के 'ऐव्यङ्घन' का परिवर्तित रूप है । अवेस्ता के शब्द का करते थे । संस्कार इन्द्र की प्रार्थना के साथ पूरा होता था अर्थ है 'कटिसूत्र', मेखला या करधनी। भविष्य पुराण जिससे राजा को देवों के राजा इन्द्र के तुल्य समझा जाता के १६३ श्लोक में जो 'जदि राना' के प्रसंग में अव्यङ्ग था । गज्यारोहण के पश्चात राजा उपहार वितरण करता शब्द आया है, वह लगता है, उन पारसी लोगों का कटि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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