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________________ योगउपनिषद-योगवासिष्ठ है, यहाँ तक कि जातिच्युत भी इसका अभ्यासी हो सकता ये अभ्यास बाहरी साधन कहलाते हैं । इस बाहरी योगाहै । योग अभ्यास करने वाले संन्यासी योगी कहलाते हैं। भ्यास से मनुष्य चेष्टाशून्य हो जाता है। इस अवस्था को पतञ्जलि के सूत्रों पर वाचस्पति मिश्र, व्यास मुनि, योगनिद्रा' ( योग में निद्रा या लय ) कहते हैं जो मुक्ति विज्ञानभिक्षु, भोजराज, नागेशभट्ट आदि विद्वानों की अवथा कैवल्यावस्था के पूर्व की अवस्था है। . व्याख्या, टीका, वृत्तियाँ आदि प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। योगपाद-शैव आगओं की तरह संहिताओं में चार योग उपनिषद्-विषयानुसार विभाजन करने पर उपनिषदों प्रकरण होते हैं : के वेदान्त, योग, संन्यास, शैव, वैष्णव, गाणपत्य आदि अनेक (१) ज्ञानपाद : दार्शनिक ज्ञान प्रकार हो जाते है । योगविषयक उपनिषदों में योगा- (२) योगपाद : योग की शिक्षा व अभ्यास नुशासन के प्राचीन छ: अंगों पर विचार किया गया है (३) क्रियापाद : मन्दिर तथा प्रतिमाओं का निर्माण (आगे चलकर वे आठ हो गये-अष्टांग योग) तथा पवित्र (४) चर्यापाद : धार्मिक क्रियाएँ । 'ओम' पर ध्यान केन्द्रित करने पर उनमें विशेष बल दिया योगमत-भारत में योग विद्या से सम्बन्ध रखने वाले अनेक गया है। ये ग्रन्थ मैत्रायणी तथा चलिका के पीछे सम्प्रदाय प्रचलित हैं। उनमें प्रमुख है 'नाथ सम्प्रदाय' रचे गये हैं, किन्तु वेदान्तसूत्र एवं योगसूत्रों के पूर्व के हैं। जिसका वर्णन पिछले अक्षरक्रम में हो गया है । योग का __ योग सम्बन्धी उपनिषदें पद्यबद्ध हैं तथा चूलिका की दूसरा साधक है 'चरनदासी पन्थ' । इसका भी वर्णन किया अनुगामी हैं । इनमें सबसे प्राचीन है 'ब्रह्मबिन्दु' जो मैत्रा जा चुका है। योगमत के अन्तर्गत शब्दाद्वैतवाद भी आता यणीकालीन है । क्षुरिका, तेजोबिन्दु, ब्रहाविद्या, नादबिन्दु, है, क्योंकि किसी न किसी रूप में सभी योग मतावलम्बी योगशिखा, योगतत्त्व, ध्यानबिन्दु, अमृतबिन्दु इस वर्ग की शब्द की उपासना करते हैं। यह उपासना अत्यन्त प्राचीन मुख्य उपनिषदें हैं, जो संन्यासवर्गीय उपनिषदों तथा महा है । प्रणव के रूप में इसका मूल तो वेदमन्त्रों में हो भारत के समकालीन हैं। केवल इस वर्ग की 'हंस' पर वर्तमान है । इसका प्राचीन नाम प्रणववाद अथवा स्फोटवर्ती अनिश्चित तिथि की रचना है। वाद है । इसका वर्णन आगामी पृष्ठों में किया जायगा। योगक्षेम-(१) 'प्राप्ति (योग) और उसकी रक्षा (क्षेम) ।' वर्तमान काल का शब्दध्यानवादी राधास्वामी पन्थ भी यह कल्याण और मंगल का पर्याय है । राजसूय यज्ञ करने ध्यानयोग का ही एक प्रकार है। के पूर्व राजा अपना पुनरभिषेक कराता था। इसकी योगराज-काश्मीर शैवाचार्यों में योगराज एक विद्वान थे। क्रियाएँ 'ऐन्द्र महाभिषेक' से मिलती-जुलती होती थीं इन्होंने अभिनवगुप्त कृत 'परमार्थसार' (काश्मीर शववाद और 'योगक्षेम' इसकी एक क्रिया हुआ करती थी। राजा पर लिखे गये १०५ छन्दों के एक ग्रन्थ) का भाष्य पुरोहित को अपनी विजय के लिए उपहार देता था और प्रस्तुत किया है। इनके 'परमार्थसारभाष्य' का अंग्रेजी समिधा हाथ में लेकर तोन पद उत्तर-पूर्व दिशा में चलता अनुवाद डा. बार्नेट ने प्रस्तुत किया है। था ( यह इन्द्र की अपराजित दिशा है ) जिसका आशय योग-ोम (प्राप्ति और उसकी रक्षा) की कामना होता था। योगवात्तिक-सोलहवीं शताब्दी के मध्य विज्ञानभिक्षु ने (२) योगक्षेम अर्थशास्त्र में भी प्रयत हुआ है। याज्ञ- योगसूत्रों की एक व्याख्या लिखी जो 'योगवार्तिक' कहवल्क्यस्मति के अनुसार 'अलब्धलाभो योगः' अर्थात लाती है। अप्राप्त की प्राप्ति योग है और 'लब्धपरिपालनं क्षेमः' योगवासिष्ठ रामायण--प्रचलित अद्वैत वेदान्तीय ग्रन्थों में अर्थात जो प्राप्त हो गया हो उसका परिपालन अथवा 'योगवासिष्ठ रामायण' का विशिष्ट स्थान है। यह रक्षा क्षेम कहलाता है। तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में रचे गये संस्कृत ग्रन्थों में से योगनिद्रा-यौगिक साधना में अनेक क्रम या दशाएँ बाहरी एक है। यह अध्यात्मरामायण के समानान्तर है, क्योंकि साधन के रूप में सम्पादित होती है । अनेक आसन, श्वास इसमें राम और वसिष्ठ के संवाद रूप में वेदान्त के तथा निःश्वास की गणना ( प्राणायाम) तथा दृष्टि को सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला गया है। यह बड़ा विशालनासिका के अग्र स्थान पर केन्द्रित करना ( नासाग्रदृष्टि ) काय ३२,००० पद्यों का ग्रन्थ है। इसमें अद्वैत वेदान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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