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________________ यामुनाचार्य-यास्क ५३७ 'देखना, कहीं यामुनाचार्य विषयभोग में फंसकर अपने है, सत्यसङ्कल्प एवं असीम सुखसागर है। ईश्वर पूर्ण कर्तव्य को न भूल जाय । इसका भार मैं तुम्हारे ऊपर है, जीव अणु है । जीव अंश है, ईश्वर अंशी है। मुक्त छोड़ता हूँ।' जीव ईश्वरभाव को प्राप्त नहीं होता। जगत् ब्रह्म का इन्हीं राममिश्र की शिक्षा से प्रभावित होकर यामुना परिणाम है । ब्रह्म ही जगत् के रूप में परिणत हुआ है। चार्य रङ्गनाथ के सेवक हो गये । उन्होंने अपने दादा का जगत् ब्रह्म का शरीर है, ब्रह्म जगत् का आत्मा है । आत्मा छोड़ा हुआ सच्चा धन प्राप्त कर लिया, पश्चात् अपना और शरीर अभिन्न हैं । अतएव जगत् ब्रह्मात्मक है । शेष जीवन भगवत्सेवा तथा ग्रन्थप्रणयन में बिताया। यास्क-वैदिक संज्ञाओं के व्युत्पत्तिरचयिता या प्रसिद्ध उन्होंने संस्कृत में चार ग्रन्थ लिखे हैं-स्तोत्ररत्न, सिद्धि- निरुक्तकार । वैदिक शब्दों के परिज्ञान के लिए इनका त्रय, आगमप्रामाण्य और गीतार्थसंग्रह। इनमें सबसे निरुक्त बहुत उपयोगी है । इनका जीवनकाल दसवीं शती प्रधान सिद्धित्रय है । यह गद्य और पद्य में लिखा गया ई० पू० के लगभग था । निरुक्त तीसरा वेदाङ्ग माना है। उन्होंने अपने ग्रन्थों में विशिष्टाद्वैतवाद का प्रतिपादन जाता है । यास्क ने पहले 'निघण्टु' नामक वैदिक शब्दकिया है। कोश तैयार किया था, निरुक्त एक प्रकार से उसी की यामुनाचार्य रामानुज स्वामी के परम गुरु थे । यामुना टीका है । इससे वैदिक शब्दों का व्युत्पत्तिपरक अर्थ प्रकट चार्य का रामानुजाचार्य पर बड़ा प्रेम था। उन्होंने होता है । निघण्टु और निरुक्त में इतना अधिक विषय साम्य है कि सायणाचार्य ने अपने ऋग्वेदभाष्य की भूमिमृत्युकाल में रामानुज का स्मरण किया, परन्तु उनके का में निघण्टु को भी निरुक्त कहा है । निरुक्त अध्ययन पहुँचने के पूर्व ही वे नित्यधाम को पहुँच गये । करने के लिए वैयाकरण होना आवश्यक है । व्याकरण सिद्धान्त : विशिष्टाद्वैत' शब्द दो शब्दों के मिलने से शास्त्र की दृष्टि से निरुक्त का बड़ा महत्त्व है । निरुक्त के बना है-विशिष्ट और अद्वैत । विशिष्ट का तात्पर्य है अपने विषय निम्नांकित हैंचेतन और अचेतनविशिष्ट ब्रह्म, और अद्वैत का मतलब वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ । है अभेद या एकत्व । अतएव चेतनाचेतन विभाग विशिष्ट धातोस्तथार्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम् ।। ब्रह्म के अभेद या एकत्व के निरूपण करने वाले सिद्धान्त निरुक्त में तीन काण्ड हैं-(१) नघण्टुक ( २) का नाम विशिष्टाद्वैतवाद है। यामुनाचार्य ने इन्हीं नैगम और ( ३ ) दैवत । इसमें परिशिष्ट मिलाकर कुल सिद्धान्तों की स्थापना अपने ग्रन्थों में की है। चौदह अध्याय हैं । यास्क ने शब्दों को धातुज माना है शाङ्कर मतानुयायी सुरेश्वराचार्य के विचार से ज्ञान स्व और धातुओं से व्युत्पत्ति करके उनका अर्थ निकाला है। प्रकाश है, अखण्ड है, कूटस्थ है, नित्य है, ज्ञान ही आत्मा यास्क ने वेद को ब्रह्म कहा है और उसको इतिहास, है, ज्ञान ही परमात्मा है, ज्ञान निष्क्रिय है, ज्ञान में भेद ऋचाओं और गाथाओं का समुच्चय माना है ( तत्र नहीं है, ज्ञान आपेक्षिक नहीं है । यामुनाचार्य इस मत को ब्रह्मेतिहासमिश्रं ऋमिथं गाथामिथं च भवति ) । जब अवैदिक मानते हैं। उनके मत में ज्ञान आत्मा का धर्म यास्क ने अपना निरुक्त रचा उस समय तक अनेक वैदिक है । शावर मत में आत्मा ज्ञानस्वरूप है परन्तु यामुना शब्दों के अर्थ अस्पष्ट और अज्ञात हो चुके थे । अपने एक चार्य के मत में आत्मा ज्ञाता है। ज्ञातृत्व शक्ति आत्मा पूर्ववर्ती निरुक्तकार के मत का उल्लेख करते हुए उन्होंने की है, ज्ञान सक्रिय है, शङ्कर के मत में ज्ञान निष्क्रिय लिखा है, "वैदिक ऋचाएँ अस्पष्ट, अर्थहीन और परस्पर है । यामुन के मत में ज्ञान सविशेष है, शाङ्कर मत में विरोधाभास वाली हैं।" इससे यास्क सहमत नहीं थे। निर्विशेष है । यामुन के मत में ज्ञान आपेक्षिक है, शाङ्कर इनके पूर्व सत्रह निरुक्तकार हो चुके थे । यास्ककृत निरुक्त मत में ज्ञान स्वप्रकाश है। के प्रसिद्ध टीकाकार दुर्गाचार्य हुए । अपने टीकाग्रन्थ पर __ यामुन के मत में श्रुति ही आत्मप्रतिपत्ति का प्रमाण उन्होंने एक निरुक्तवातिक भी लिखा जो अब उपलब्ध है। ईश्वर पुरुषोत्तम है तथा जीव से श्रेष्ठ है । जीव नहीं है। दर्गाचार्य के अतिरिक्त बर्बरस्वामी, स्कन्द कृपण है और दुःख-शोक में डूबा रहता है; ईश्वर सर्वज्ञ महेश्वर और वररुचि ने भी निरुक्त पर टीकाएँ लिखी है। ६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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