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________________ अपान- अभङ्ग अपनी घोर तपस्या के कारण इन्द्र के सिंहासन के अधिकार की चेष्टा करते थे, उन्हें इन्द्र इन्हीं अप्सराओं के द्वारा पथभ्रष्ट किया करता था । स्वर्ग की प्रधान अप्स - राओं के कुछ नाम हैं तिलोत्तमा, रम्भा, उर्वशी, वृताची, मेनका आदि । अपान - श्वास से सम्बन्ध रखने वाले सभी शब्द 'अन्' धातु से बनते हैं जिनका अर्थ है श्वास लेना अथवा प्राणवायु का नासिकारन्धों से ग्रहण - विसर्जन करना । इसका लैटिन समानार्थक 'अनिमस' तथा गाय समानार्थक 'उस नन है। वास-क्रिया का प्रधान शब्द जो उपर्युक्त धातु से बना है, वह है 'प्राण' (प्रपूर्वक अन)। इसके अन्तर्गत पाँच शब्द आते हैं - प्राण, अपान, व्यान, उदान एवं समान 'प्राण' दो प्रणालियों का द्योतक है, वायू का ग्रहण करना तथा निकालना । किन्तु प्रधानतया इसका अर्थ ग्रहण करना ही है, तथा 'अपान' का अर्थ वायु का छोड़ना 'निश्वास' है प्राण तथा अपान द्वन्द्वसमास के रूप में अधिकतर व्यवहृत होते हैं । कहीं-कहीं अपान का अर्थ श्वास लेना एवं प्राण का अर्थ निश्वास है। विश्व की किसी भी जाति ने श्वासप्रणाली की भौतिक एवं आध्यात्मिक उपादेयता पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना प्राचीन भारतवासियों ने दिया। उन्होंने इसे एक विज्ञान माना तथा इसका प्रयोग यौगिक एवं याज्ञिक कमों में किया। आज भी यह कला भारतभू पर प्राणवान् है । दे० 'प्राण' अपान्तरतमा - महाभारत से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि तत्त्वज्ञान के पहले आचार्य अपान्तरतमा थे । यथा - 'अपान्तरतमाश्चैव वेदाचार्यः स उच्यते ।' यहाँ वेद का अर्थ वेदान्त है । अपान्तरतमा की कथा इस प्रकार है : नारायण के आह्वान करने पर सरस्वती से उत्पन्न हुआ अपान्तरतमा नाम का पुत्र सामने आ खड़ा हुआ । नारायण ने उसे वेद की व्याख्या करने की आज्ञा दी । उसने आज्ञानुसार स्वायम्भुव मन्वन्तर में वेदों का विभाग किया। तब भगवान् ने उसे वर दिया कि 'वैवस्वत मन्वसर में भी वेद के प्रवर्तक तुम ही होगे तुम्हारे वंश में कौरव उत्पन्न होंगे । उनकी आपस में कलह होगी और वे संहार के लिए तैयार होंगे। तब तुम अपने तपोबल से वेदों का विभाग करना । वसिष्ठ के कुल में पराशर ऋषि Jain Education International ४१ से तुम्हारा जन्म होगा।' इस कथा से स्पष्ट है कि इस ऋषि ने वेदों का विभाग किया। वेदान्तशास्त्र के आदि प्रवतक भी यही ऋषि हैं । वेदान्तशास्त्र पर इनका पहले कोई ग्रन्थ रहा हो, ऐसा भी सम्भव है । भगवद्गीता में कहा हुआ 'ब्रह्मसूत्र' इन्हीं का हो सकता है, क्योंकि बादरायण के ब्रह्मसूत्र गीता के बहुत बाद के हैं। उनकी चर्चा तो गीता में हो ही नहीं सकती । अपांनपात् वेद के यूफों ( ७.४७, ४.९७ एवं १०.९, ३० ) में आपः अथवा आकाश के जल को स्तुति है | किन्तु कदाचित् पृथ्वी के जल को भी इसमें सम्मि लित समझा गया है | आप का स्थान सूर्य के पार्श्व में है । वरुण उसके बीच घूमते हैं । इन्द्र ने अपने वज्र से खोदकर उनकी नहर तैयार की है। 'अपांनपात्' जल का पुत्र है, जो अग्नि का विद्युत् रूप है, क्योंकि वह दिना ईंधन के चमकता है। अपूर्ण हवन सामग्री की एक वस्तु जिसका ब्राह्मणों और श्रौतसूत्रों में प्रायः उल्लेख हुआ है । प्राचीन काल में रोट, मिठाइयों, भुने व तले अन्नों का यज्ञों में हवन किया जाता था। वेदों में देवों को यज्ञ में अपूप (पूप) देने का निर्देश है। आज भी छोटे-छोटे ग्रामदेवालयों में रोट, दूध व फुल देवता पर चढ़ाये जाते हैं। शिव को रोट व पिण्ड दिया जाता है। प्राचीन हिन्दुओं के पाक्षिक यज्ञों में चावल को पकाकर उसका गोला बनाया जाता था, फिर उसे कई टुकड़ों में काटकर उस पर घी छिड़क कर अग्नि में हवन किया जाता था । ये पिण्ड के टुकड़े भिन्न-भिन्न देवों के नाम पर अग्नि में दिये जाते थे जिनमें अग्नि भी एक देवता होता था। यह सारी क्रिया परिवार का स्वामी करता था । अवशेष टुकड़ों को परिवार के सदस्य यापूर्वक (प्रसाद के रूप में) ग्रहण करते थे। अभङ्ग - महाराष्ट्र के प्रधान तीर्थ पण्ढरपुर में विष्णु की पूजा विठ्ठल अथवा विठोबा के नाम से की जाती है। वहाँ मन्दिर में जाने वाले यात्री एक प्रकार के पद गाते हैं जिन्हें अभङ्ग कहते हैं । ये अभङ्ग लोकभाषा में रचे गये हैं, संस्कृत में नहीं । मुक्ताबाई (१३०० ई०), तुकाराम तथा नामदेव (१४२५ ई०) के अभङ्ग प्रसिद्ध हैं । अभय --- भय का अभाव, अथवा जिसे भय नहीं है । राजा के लिए अभयदान सबसे बड़ा धर्म कहा गया है : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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