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________________ ४५२ ब्रह्म एव इदं सर्वम्-ब्रह्मगुप्त अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए मुख्यतः तीन प्रमाण ब्रह्मकोर्तनतरङ्गिणी-सदाशिव ब्रह्मेन्द्र (भट्रोजि दीक्षित के दिये हैं : समकालीन) रचित एक ग्रन्थ, जो अभी तक अप्रका(अ) संसार के सभी कार्यों और वस्तुओं का कोई न शित है। कोई मूल कारण होता है, जिससे वे उत्पन्न होते है । इस ब्रह्मकचं व्रत-(१) कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को इसका अनुमूल कारण का कोई कारण नहीं होता । वह अनादि, अज, ष्ठान होता है। इसमें उपवास तथा पञ्चगव्य प्राशन का सनातन कारण ब्रह्म है। विधान है। पञ्चगव्य की पाँच वस्तुएँ हैं-गोमूत्र, गोमय, (आ) संसार के पदार्थों और कार्यों में एक शृङ्खला गोदधि, गोघत और गोदुग्ध । किन्तु ये पाँचों पदार्थ और व्यवस्था दिखाई पड़ती है। यह अचेतन प्रकृति से विभिन्न रंगों की गौओं से लेने चाहिए। दूसरे दिन देवों संभव नहीं । अतः इसका आदि कारण चेतन ब्रह्म है। तथा बाह्मणों की पूजा करनी चाहिए। पूजनोपरान्त (इ) ब्रह्म के सर्वदा सर्वत्र वर्तमान (प्रत्यगात्मा) होने आहार करने का विधान है। इससे समस्त पापों का क्षय के कारण सभी को अनुभव होता है कि 'मैं हूँ। होता है। ब्रह्म और जीवात्मा के सम्बन्ध पर भी भारतीय दर्शनों में प्रचुर विचार हुआ है। इस चर्चा का आधार है उप (२) चतुर्दशी को उपवास रखते हुए पूर्णिमा को पञ्चनिषद्वाक्य 'तत्त्वमसि' । आचार्य शङ्कर आदि अद्वैतवादी गव्य प्राशन, तदनन्तर हविष्यान्न का आहार करना चाहिए। इसका अर्थ करते हैं, 'तू (आत्मा) वह (ब्रह्म) है । अतः एक वर्ष तक प्रति मास इसका अनुष्ठान होता है । वे ब्रह्म और जीवात्मा का अभेद मानते हैं। आचार्य (३) मास में दो बार अर्थात् अमावस्या तथा पूर्णिमा रामानुज विशिष्टाद्वैतवादी होने के कारण ब्रह्म और के क्रम से इसका पाक्षिक अनुष्ठान करना चाहिए। जीव के बीच विशिष्ट अभेद (ऐक्य) मानते हैं। उनके ब्रह्मगुप्त-ब्रह्मगुप्त गणित-ज्योतिष के बहुत बड़े आचार्य हो अनुसार जीव और ब्रह्म के बीच अङ्ग और अङ्गी का गये है। प्रसिद्ध ज्योतिषी भास्कराचार्य ने इनको 'गणकचक्रसम्बन्ध है । द्वैतवादी आचार्य मध्व उपनिषद्वाक्य की चूडामणि' कहा है और इनके मूलांकों को अपने 'सिद्धान्तव्याख्या करते हैं, 'तू (आत्मा) उसका (ब्रह्म का) है' और शिरोमणि' का आधार माना है। इनके ग्रन्थों में सर्वब्रह्म और जीव के बीच सनातन भेद मानते हैं । वे ब्रह्म । प्रसिद्ध हैं, 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' और 'खण्डखाद्यक' । को जीव का स्वामी एवं आराध्य मानते हैं । निम्बार्क के खलीफाओं के राज्यकाल में इनके अनुवाद अरबी भाषा अनुसार दोनों में भेदाभेद सम्बन्ध है, अर्थात् उपासना के में भी कराये गये थे, जिन्हें अरब देश में 'अल सिन्द लिए जीव और ब्रह्म में भेद है परन्तु तत्वतः अभेद है। हिन्द' और 'अल् अर्कन्द' कहते थे। पहली पुस्तक वल्लभाचार्य के विशुद्धादत के अनुसार ब्रह्म और जीवात्मा ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' का अनुवाद है और दूसरी 'खण्डमें आत्यन्तिक अभेद नहीं, क्योंकि जीव अणु होने से खाद्यक' का। ब्रह्मगुप्त का जन्म शक ५१८ (६५३ वि०) उत्पन्न और विकृत होता है । महाप्रभु चैतन्य के अनुसार में हुआ था और इन्होंने शक ५५० (६८५ वि०) में ब्रह्म और जीव के बीच अचिन्त्य भेदाभेद का सम्बन्ध है। 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' की रचना की । इन्होंने स्थान-स्थान ब्रह्म में अचिन्त्य (अनिर्वचनीय) शक्तियाँ हैं जो भेद और पर लिखा है कि आर्यभट, श्रीषेण, विष्णुचन्द्र आदि की अभेद दोनों में साथ प्रकट होती है; केवल भेद अथवा गणना से ग्रहों का स्पष्ट स्थान शुद्ध नहीं आता, इसलिए अभेद मानना युक्त नहीं। भगवान् में दोनों का समाहार वे त्याज्य हैं और 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' में दृग्गणितैक्य है । इन विचारधाराओं ने धार्मिक जीवन के विविध होता है, इसलिए यही मानना चाहिए। इससे सिद्ध होता मार्गों को जन्म दिया है। है कि ब्रह्मगुप्त ने 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' की रचना ग्रहों ब्रह्म एव इदं सर्वम् -'ब्रह्म हो यह सम्पूर्ण विश्व है।' यह । का प्रत्यक्ष वेध करके की थी और वे इस बात की उपनिषदों (दे० मुण्डक उपनिषद् २.१.११) का एक प्रमुख आवश्यकता समझते थे कि जब कभी गणना और वेध में सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त ने अद्वैत वेदान्त की भूमिका अन्तर पड़ने लगे तो वेध के द्वारा गणना शुद्ध कर लेनी प्रस्तुत की। चाहिए । ये पहले आचार्य थे जिन्होंने गणित-ज्योतिष की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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