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________________ बृहद्वसु-बृहस्पतिस्मृति ४४७ का उल्लेख ईश्वरसंहिता के सदृश है तथा द्रविड देश को वैष्णव भक्तों की भूमि कहा गया है । बृहद्वसु-वंश ब्राह्मण में उल्लिखित एक आचार्य का नाम । बृहद्यामल तन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत तन्त्र सूची में इसका नाम वासठवें क्रम पर आता है । बृहन्नारदीय पुराण-उन्तीस उपपुराणों में परिगणित । सम्भवतः नारदीय महापुराण का यह परिशिष्ट है परन्तु आकार में बहुत विस्तृत है। बृहस्पति-(१) वैदिक ग्रन्थों में उल्लिखित एक देवता। कुछ विद्वानों का विचार है कि यह नाम एक ग्रह (बहस्पति) का बोधक है, परन्तु इसके लिए पर्याप्त प्रमाण नहीं है । पुराणों के अनुसार बृहस्पति देवताओं के गुरु और अध्यात्मविद्याविशारद ऋषि कहे जाते हैं । (२) चार्वाक दर्शन के प्रणेता बृहस्पति का नाम भी उल्लेखनीय है। उनके मतानुसार "न स्वर्ग है न अपवर्ग; परलोक से सम्बन्ध रखनेवाला आत्मा भी नहीं है ।" ये बृहस्पति लोकायत (नास्तिक) दर्शन के पूर्वाचार्य समझे जाते हैं और अवश्य ही महाभारत से पहले के हैं । (३) बृहस्पति एक अर्थशास्त्रकार और स्मृतिकार भी हुए है। इनके ग्रन्थ खण्डित आकार में ग्रन्थान्तरों के उद्धरणों में ही पाये जाते हैं । बृहस्पतिसव–एक यज्ञ का नाम । तैत्तिरीय ब्राह्मण (२.७, १,२) के अनुसार इसके अनुष्ठान द्वारा कोई भी व्यक्ति वैभवसंपन्न पद प्राप्त कर सकता था। आश्वलायन श्रौतसूत्र (९.९,५) के अनुसार पुरोहित इस यज्ञ को वाजपेय के पश्चात् करता था और राजा वाजपेय के पश्चात् राजसूय यज्ञ करता था। शतपथ ब्राह्मण (५.२,१,१९) में बृहस्पतिसव को वाजपेय कहा गया है, किन्तु यह एकता प्राचीन नहीं जान पड़ती। बृहस्पतिस्मृति-धर्मशास्त्रों में बृहस्पतिस्मृति का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। याज्ञवल्क्यस्मृति (१.४-५) में स्मृतिकारों की जो सूची दी गयी है उसमें बृहस्पति की गणना है। किन्तु पूर्ण स्मृति अब कहीं उपलब्ध नहीं होती। बूलर ने अपरार्क के निबन्ध से बृहस्पति के ८४ श्लोकों का संग्रह कर इसका जर्मन भाषान्तर प्रकाशित कराया था (लिपजिक, १८७९)। डॉ० जाली ने कई स्रोतों से बहस्पति के ७११ श्लोकों का संकलन किया और इसका अंग्रेजी भाषान्तर 'सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट सीरीज' (सं० ३३) में प्रकाशित किया था। बृहस्पति मनुस्मृति का घनिष्ठ रूप से अनुसरण करते हैं, किन्तु कतिपय स्थानों पर मन के विधिक नियमों की पूर्ति, विस्तार और व्याख्या भी करते हैं । निश्चित रूप से बृहस्पतिस्मृति मनु और याज्ञवल्क्य की परवर्ती है। यह या तो नारदस्मृति की समकालीन अथवा निकट परवर्ती है । इसकी दो विशेषताएँ हैं। एक तो यह कि इसमें धन और हिंसामूलक (दीवानी और फौजदारी) विवादों का स्पष्ट भेद किया गया है : द्विपदो व्यवहारश्च धनहिंसासमुद्भवः । द्विसप्तधार्थमूलश्च हिंसामूलश्चतुर्विधः ।। (जीमूतवाहन की व्यवहारमातृका में उद्धृत) दूसरे, बृहस्पति ने इस बात पर जोर दिया है कि वाद का निर्णय केवल शास्त्र के लिखित नियमों के आधार पर न करके युक्ति और औचित्य के ऊपर करना चाहिए : केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्तव्यो हि निर्णयः । युक्तिहीने विचारे तु धर्महानिः प्रजायते ॥ चौरोऽचौरो साध्वसाधु जायते व्यवहारतः । युक्तिं विना विचारेण माण्डव्यश्चौरतां गतः ॥ (याज्ञ०, २.१ पर अपरार्क द्वारा उद्धृत ) जिन विषयों पर बृहस्पति के उद्धरण पाये जाते हैं उनकी सूची निम्नाङ्कित है : (क) वाद (मुकदमे) के चतुष्पाद (ख) प्रमाण (चार प्रकार के तीन मानवीय : लिखित, भुक्ति तथा साक्षी और एक दिव्य ) १. लिखित (दस प्रकार के) २. भुक्ति (अधिकार--भोग) ३. साक्षी (बारह प्रकार के) ४. दिव्य (नौ प्रकार का) (ग) विवादस्थान (अठारह)ऋणादान, निक्षेप, अस्वामिविक्रय, सम्भूय-समुत्थान, दत्ताप्रदानिक, अभ्युपेत्याशुश्रूषा, वेतनस्य अनपाकर्म, स्वामिपालविवाद, संविद्व्यक्तिक्रम, विक्रीयासम्प्रदान, सीमाविवाद, पारुष्य (दो प्रकार का), साहस (तीन प्रकार का), स्त्रीसंग्रहण, स्त्री-पुन्धर्म, विभाग, द्यूतसमाह्वय और प्रकीर्णक ( नृपाश्रय व्यवहार )। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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