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________________ प्राणतोषिणीतन्त्र प्रातिशाख्य विश्व आधारित रहता है । प्राण का आदान-प्रदान प्राण द्वारा ही होता है। प्राण पितावत् जगत् का जनक, मातृवत् संसार का पोषक, भ्रातृवत् समानता का विधायक, भगिनीवत् स्नेह संचारक एवं आचार्यवत् नियमनकर्ता है । जिस प्रकार एक सम्राट अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को विभिन्न ग्राम, नगर आदि स्थानों पर स्थापित कर उनके द्वारा उन उन स्थानों का शासन कार्य कराता है, उसी प्रकार प्राण भी अपने अंश से उत्पन्न व्यष्टिभूत प्राणों को जीवशरीर के विभिन्न स्थानों पर प्रतिष्ठित कर शरीर के विविध कार्यों का संचालन कराता है। इस प्रकार यह सब प्राणशक्ति की क्रियाकारिता का ही परिणाम है, जिसके ऊपर चराचर जगत् का विकास आधारित है। प्राणतोषिणी तन्त्र-तान्त्रिक साहित्य के अन्तर्गत इस ग्रन्थ का संकलन समस्त शाक्त उपासना विधियों का संग्रह कर पं० रामतोष भट्टाचार्य ने १८२१ ६० में किया। प्राणनाथ परिणामी (प्रणामी ) सम्प्रदाय (एक वैष्णव उपसम्प्रदाय) के प्रवर्तक महात्मा प्राणनाथ परिणामवादी वेदान्ती थे, विशेषतः ये पद्मा में रहते थे। महाराज छत्रसाल इन्हें अपना गुरु मानते थे । ये अपने को मुसलमानों का मेहंदी, ईसाइयों का मसीहा और हिन्दुओं का कल्कि अवतार कहते थे। सर्वधर्मसमन्वय इनका लक्ष्य था । इनका मत व्रज के निम्बार्कय वैष्णवों से प्रभावित था । ये गोलोकवासी भगवान् कृष्ण के साथ सख्य भाव की उपासना करने की शिक्षा देते थे । इनके अनुयायी वैष्णव गुजरात, राजस्थान और बुन्देलखण्ड में अधिक पाये जाते हैं। दे० 'कुलज्जम साहब' तथा 'प्रणामी' । प्राणलिङ्ग - लिङ्गायतों के छः आध्यात्मिक विकासों में चतुर्थ क्रम पर प्राणलिङ्ग है। प्राणाग्निहोत्र उपनिषद् - परवर्ती उपनिषदों में से एक । इसका भाष्य १४वीं शताब्दी के अन्त में महात्मा शरानन्द तथा नारायण ने लिखा । प्राणायाम - प्राण ( श्वास ) का आयाम ( नियन्त्रण ) । मन को एकाग्र करने का यह मुख्य साधन माना जाता है। यौगिक प्रणाली में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। अष्टाङ्गयोग ( राजयोग ) का यह चौथा अङ्ग है। हठयोग में प्राणायाम की प्रक्रिया का बड़ा विस्तार हुआ है। प्राणायाम के तीन प्रकार है : (१) पूरक Jain Education International ४२९ ( श्वास को भीतर ले जाकर फेफड़े को भरना ) (२) कुम्भक ( श्वास को भीतर देर तक रोकना) और (३) रेचक ( श्वास को बाहर निकालना) । दे० 'योगदर्शन' । प्रातः स्नान- प्रातःस्नान नित्य धार्मिक कृत्यों में आवश्यक माना गया है। मनुष्य को बड़े तड़के उठकर स्नान करना चाहिए । विष्णुधर्मोत्तर ( ६४.८ ) इस बात का निर्देश करता है कि प्रातःस्नान उस समय करना चाहिए जब उदीयमान सूर्य की अरुणिमा प्राची में छा जाये। स्नान का सामान्य मन्त्र है : गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति । कावेरि नर्मदे सिन्धो अलेऽस्मिन् सन्निधि कुरु ॥ स्नान करते समय हिन्दू इस बात की भावना करता है कि भारत की समस्त नदियों के जल से वह पवित्र हो रहा है। प्रातिशाख्य- वेदों के अनेक प्रकार के स्वरों के उच्चारण, पदों के क्रम और विच्छेद आदि का निर्णय शाखा के जिन विशेष विशेष ग्रन्थों द्वारा होता है उन्हें प्रातिशास्य कहते हैं । प्रातिशाख्यों में ही मूलतः शिक्षा और व्याकरण दोनों पाये जाते हैं। प्राचीन काल में वेदों की सभी शाखाओं के प्रातिशाख्यों का प्रचलन था, परन्तु अब केवल ऋग्वेद की शाकल शाखा का शौनकरचित ऋक्प्रातिशाख्य, वाजसनेयी शाखा का कात्यायन रचित वाजसनेय प्रातिशाख्य, साम वेदीय शाखा का पुष्प मुनिरचित सामप्रातिशाख्य और अथप्रातिशाख्य की शौनकीय चतुरध्यायी उपलब्ध है । ऋक्प्रातिशाख्य में तीन काण्ड, छ: पटल और एक सौ तीन कण्डिकाएं हैं, इस प्रातिशाख्य का परिशिष्ट रूप 'उपलेख सूत्र' नाम का एक ग्रन्थ भी मिलता है । कात्यायन के वाजसनेय प्रातिशाख्य में आठ अध्याय है। पहले अध्याय में संज्ञा और परिभाषा है। दूसरे में स्वरप्रक्रिया है । तीसरे से पांचवें अध्याय तक संस्कार है। छठे और सातवें अध्याय में क्रिया के उच्चारण भेद हैं और आठवें अध्याय में स्वाध्याय अर्थात् वेदपाठ के नियम दिये गये हैं सामप्रातिशाख्य के रचयिता पुष्प मुनि है। इसमें दस प्रपाठक हैं । पहले दो प्रपाठकों में दशरात्र, संवत्सर, एकाह, अहीन सत्र प्रायश्चित्त और क्षुद्र पर्यानुसार सामसमूह की संज्ञाएँ संक्षेप से बतायी गयी हैं। तीसरे और चौथे प्रपाठक में साम में श्रुत, आर्हभाव और प्रकृत भाव " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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