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________________ ४२४ प्रयाग देह त्याग करने वाला पुनः संसार में उत्पन्न नहीं होता। रान्त प्रलय करने पर भी प्रयाग नष्ट नहीं होता। उस यह केशव को प्रिय (इष्ट) है । इसे त्रिवेणी कहते हैं। समय प्रतिष्ठान के उत्तरी भाग में ब्रह्मा छद्म वेश में, विष्णु प्रयाग शब्द की व्युत्पत्ति वनपर्व (८७.१८-१९) में । वेणीमाधव रूप में तथा शिव वटवृक्ष के रूप में आवास यज् धातु से मानी गयी है । उसके अनुसार सर्वात्मा __करते हैं और सभी देव, गंधर्व, सिद्ध तथा ऋषि पापब्रह्मा ने सर्वप्रथम यहाँ यजन किया था (आहुति दी थी) शक्तियों से प्रयागमण्डल की रक्षा करते हैं। इसीलिए इसलिए इसका नाम प्रयाग पड़ गया । पुराणों में प्रयाग- मत्स्यपुराण (१०.४.१८) में तीर्थयात्री को प्रयाग जाकर मण्डल, प्रयाग और वेणी अथवा त्रिवेणी की विविध एक मास निवास करने तथा संयमपूर्वक देवताओं और व्याख्याएँ की गयी है । मत्स्य तथा पद्मपुराण के अनुसार पितरों की पूजा करके अभीष्ट फल प्राप्त करने का प्रयागमण्डल पाँच योजन की परिधि में विस्तृत है और विधान है। उसमें प्रविष्ट होने पर एक-एक पद पर अश्वमेध यज्ञ का इसी प्रकार क्षौर कर्म (शिरोमुंडन ) भी प्रयाग में पुण्य मिलता है। प्रयाग की सीमा प्रतिष्ठान (झूसी) से सम्पन्न होने पर पापमुक्ति का हेतु माना गया है। बच्चों वासुकिसेतु तक तथा कंबल और अश्वतर नागों तक स्थित और विधवाओं के क्षौर कर्म का विधान तो है ही, यहाँ है। यह तीनों लोवों में प्रजापति की पुण्यस्थली के नाम से तक कि सधवा पत्नियों के क्षौर कर्म का भी विधान विख्यात है। पदमपुराण (१.४३-२७) के अनुसार 'वेणी' 'त्रिस्थलीसेतु' के अनुसार मिलता है। वहाँ बताया गया क्षेत्र प्रयाग की सीमा में २० धनुष तक की दूरी में है कि सधवा स्त्रियों को अपने केशों की सुन्दर वेणी विस्तृत है । वहाँ प्रयाग, प्रतिष्ठान (झूसी) तथा अलर्क बनाकर, सभी प्रकार के केशविन्यास सम्बन्धी व्यंजनों से पुर (अरैल) नाम के तीन कूप हैं । मत्स्य (११०.४) और सजाकर पति की आज्ञा से ( वेणी के अग्र भाग का) अग्नि (१११.१२) पुराणों के अनुसार बहाँ तीन अग्नि क्षौर कर्म कराना चाहिए । तत्पश्चात् कटी हुई वेणी को कण्ड भी हैं जिनके मध्य से होकर गङ्गा बहती है । वन अंजली में लेकर उसके बराबर स्वर्ण या चाँदी की वेणी पर्व (८५.८१ और ८५) तथा मत्स्य० (१०४.१६-१७) में भी लेकर जड़े हाथ से संगम स्थल पर बहा देना चाहिए बताया गया है कि प्रयाग में नित्य स्नान को 'वेणी' और कहना चाहिए कि सभी पाप नष्ट हो जायँ और अर्थात् दो नदियों (गङ्गा और यमुना) का संगम स्नान हमारा सौभाग्य उत्तरोत्तर वृद्धि पर रहे। नारी के लिए कहते हैं । वनपर्व (८५.७५) तथा अन्य पुराणों में गङ्गा एक मात्र प्रयाग में ही क्षौर कर्म कराने का विधान है। और यमुना के मध्य की भूमि को पृथ्वी का जघन या प्रयाग में आत्महत्या करने का सामान्य सिद्धान्त के कटिप्रदेश कहा गया है। इसका तात्पर्य है पृथ्वी का अनुसार निषेध है। कुछ अपवादों के लिए ही इसको सबसे अधिक समृद्ध प्रदेश अथवा मध्य भाग । प्रोत्साहन दिया जाता है। ब्राह्मण के हत्यारे, सुरापान गङ्गा, यमुना और सरस्वती के त्रिवेणीसंगम को करने वाले, ब्राह्मण का धन चुराने वाले, असाध्य रोगी, 'ओंकार' नाम से अभिहित किया गया है । 'ओंकार' का शरीर की शुद्धि में असमर्थ, वृद्ध जो रोगी भी हो, रोग 'ओम्' परब्रह्म परमेश्वर की ओर रहस्यात्मक संकेत से मुक्त न हो सकता हो; ये सभी प्रयाग में आत्मधात करता है। यही सर्वसुखप्रदायिनी त्रिवेणी का भी सूचक कर सकते हैं। दे० आदिपुराण और अविस्मृति । है। ओंकार का अकार सरस्वती का प्रतीक, उकार गृहस्थ जो संसार के जीवन से मुक्त होना चाहता हो वह यमुना का प्रतीक तथा मकार गङ्गा का प्रतीक है । तीनों भी त्रिवेणीसंगम पर जाकर वटवृक्ष के नीचे आत्मघात क्रमशः प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षण (हरि के व्यूह) को कर सकता है । पत्नी के लिए पति के साथ सहमरण या उद्भत करने वाली हैं। इस प्रकार इन तीनों का संगम अनुमरण का विधान है, पर गर्भिणी के लिए यह विधान त्रिवेणी नाम से विख्यात है (त्रिस्थलीसेतु, पृष्ठ ८)। नहीं है। दे० नारदीय, पूर्वाद्ध', ७.५२-५३। प्रयाग में आत्म नरसिंहपुराण (६५.१७) में विष्णु को प्रयाग में घात करने वाले को पुराणों के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति योगमूर्ति के रूप में स्थित बताया गया है। मत्स्यपुराण होती है। कूर्म० (१.३६.१६-३९) के अनुसार योगी (१११.४-१०) के अनुसार रुद्र द्वारा एक कल्प के उप- गङ्गा-यमुना के संगम पर आत्महत्या करके स्वर्ग प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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