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________________ प्रत्यभिज्ञा-प्रदोषव्रत प्रत्यक्ष को ही एक मात्र प्रमाण मानते हुए अनुमान, उप- स्थानों के चारों ओर चलकर की जाती है। काशी में मान, शब्द आदि अन्य प्रमाणों का प्रत्याख्यान किया ऐसी ही प्रदक्षिणा के लिए पवित्र मार्ग है जिसमें यहाँ के जाता है। सभी पुण्यस्थल घिरे हुए हैं और जिस पर यात्री चलकर प्रत्यभिज्ञा-तत्ता-इदन्तावगाही' ज्ञान; सुदीर्घकालिक प्रयास काशी धाम की प्रदक्षिणा करते हैं। ऐसे ही प्रदक्षिणासे बिछुड़े हुए को पहचानना । काश्मीर शैव मत में भक्त का __मार्ग मथुरा, अयोध्या, प्रयाग, चित्रकूट आदि में हैं। मोक्ष शिव के साथ तादात्म्य अर्थात प्रत्यभिज्ञा नामक प्रदक्षिणा की प्रथा अति प्राचीन है। वैदिक काल से स्थिति पर निर्भर है। यह उस अवस्था का नाम है जब ही इससे व्यक्तियों, देवमूर्तियों, पवित्र स्थानों को प्रभावित भक्त को ध्यान में शक्ति के माध्यम से शिव की अनुभूति करने या सम्मानप्रदर्शन का कार्य समझा जाता रहा है। होती है । इस शब्द की व्युत्पत्ति है 'प्रति + अभि + ज्ञा', शतपथ ब्राह्मण में यज्ञमण्डप के चारों ओर साथ में जिसका अर्थ है जानना, पहचानना, स्मरण करना । प्रत्य जलता अङ्गार लेकर प्रदक्षिणा करने को कहा गया है। भिज्ञादर्शन के सन्दर्भ में इसका अर्थ है 'जीव और ब्रह्म गृह्यसूत्रों में गृहनिर्माण के निश्चित किये गये स्थान के चारों के तादात्म्य का ज्ञान'। ओर जल छिड़कते हुए एवं मन्त्र उच्चारण करते हुए तीन प्रत्यभिज्ञाकारिका-दसवीं शताब्दी में उत्पलाचार्य द्वारा बार घूमने की विधि लिखी गयी है। मनुस्मृति में विवाह विरचित यह ग्रन्थ सोमानन्दरचित 'शिवदृष्टि' ग्रन्थ की। के समय वधू को अग्नि के चारों ओर तीन बार प्रदक्षिणा शिक्षाओं की व्याख्या उपस्थित करता है । करने का विधान बतलाया गया है। प्रत्यभिज्ञादर्शन-एक दार्शनिक सम्प्रदाय । इसके अनुयायी प्रदक्षिणा का प्राथमिक कारण तथा साधारण धार्मिक काश्मीरक शैव होते हैं । इसके अनुसार महेश्वर ही जगत् विचार सूर्य की दैनिक चाल से निर्गत हुआ है। जिस के कारण और कार्य सभी कुछ हैं । यह संसार मात्र शिव- तरह सूर्य प्रातः पूर्व में निकलता है, दक्षिण के मार्ग से मय है। महेश्वर ही ज्ञाता और ज्ञानस्वरूप हैं। घट चलकर पश्चिम में अस्त हो जाता है, उसी प्रकार हिन्दू पटादि का ज्ञान भी शिवस्वरूप है। इस दर्शन के अनु धार्मिक विचारकों ने तदनुरूप अपने धार्मिक कृत्य को सार पूजा, पाठ, जप, तप आदि की कोई आवश्यकता बाधा विघ्न विहीन भाव से सम्पादनार्थ प्रदक्षिणा करने नहीं, केवल इस प्रत्यभिज्ञा अथवा ज्ञान की आवश्यकता है का विधान किया। शतपथ ब्राह्मण में प्रदक्षिणामन्त्रकि जीव और ईश्वर एक हैं। इस ज्ञान की प्राप्ति ही स्वरूप कहा भी गया है : “सूर्य के समान यह हमारा पवित्र मुक्ति है। जीवात्मा-परमात्मा में जो भेद दीखता है वह कार्य पूर्ण हो।" भ्रम है। इस दर्शन के मानने वालों का विश्वास है कि प्रदत्त-परम्परानुसार द्वापर युग के अन्त में आलवारों के जिस मनुष्य में ज्ञान और क्रियाशक्ति है, वही परमे- तीन आचार्य हए-पोइहे, प्रदन एवं पे । प्रदत्त का जन्म श्वर है। तिरुवन्नमलायी (श्रीअनन्तपुरम् ) नामक स्थान में प्रत्यभिज्ञाविशिनी-यह दसवीं शताब्दी के आचार्य अभि- हुआ था । नव गुप्त द्वारा लिखित ग्रन्थ है। यह 'प्रत्यभिज्ञाकारिका' प्रदिव-अथर्ववेद (१८.२.४८) में इसे तीसरा तथा सबसे पर लिखा गया भाष्य है। ऊँचा स्वर्ग कहा गया है, जिसमें पितृगण रहते हैं । प्रत्यभिज्ञाविवृतिविशिनी-आचार्य अभिनव गुप्त (१०वीं कौषीतकि ब्राह्मण (२०.१) में सात स्वर्गों की तालिका शताब्दी) द्वारा लिखित एक विस्तृत टीका, जो 'प्रत्य- में इसे पञ्चम कहा गया है। भिज्ञाकारिका' के ऊपर है। प्रदोषव्रत-त्रयोदशी को संध्याकाल के प्रथम प्रहर में इस प्रदक्षिणा-किसी वस्तु को अपनी दाहिनी ओर रखकर वत का अनुष्ठान होता है। जो इस समय भगवान शिव घूमना। यह षोडशोपचार पूजन की एक महत्त्वपूर्ण की प्रतिमा का दर्शन करता है तथा उनके चरणों में कुछ धार्मिक क्रिया है जो पवित्र वस्तुओं, मन्दिरों तथा पवित्र निवेदन करता है, वह समस्त संकटों और पापों से मुक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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