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________________ ४०६ पुराण पुराणसंहिता के रचयिता परम्परा के अनुसार महर्षि वेदव्यास थे। उन्होंने लोमहर्षण नामक अपने सूतजातीय शिष्य को यह संहिता सिखा दी। लोमहर्षण के छ: शिष्य हए और उनके भी शिष्य हुए। सम्भवतः इसो शिष्यपरम्परा ने अठारह पुराणों की रचना की । हो सकता है, वेदव्यास द्वारा प्रस्तुत पुराणसंहिता के अठारह विभाग रहे हों जिसके आधार पर इन शिष्यों ने अलगअलग पुराण निर्मित किये। फिर उनके परिशिष्ट स्वरूप अनेकों उपपराण रचे गये। विष्ण, ब्रह्माण्ड एवं मत्स्य आदि पुराणों की सृष्टिप्रक्रिया पढ़ने से प्रकट होता है कि सब पुराणों में एक ही बात है, एक जैसा विषय है। किसी पुराण में कुछ बातें अधिक है, किसी में कम । सब पुराणों का मूल एक ही है। एक पुराणसंहिता के अठारह भागों में विभक्त होने का कारण शिष्यपरम्परा की रुचि के अतिरिक्त और भी हो। सकता है । पुराणों के अनुशीलन से पता चलता है कि प्रत्येक ग्रन्थ का विशेष उद्देश्य है। मूल विषय एक होते हुए भी हर एक पुराण में किसी एक प्रसंग का विस्तार से वर्णन है। पुराण का व्यक्तिगत महत्त्व इसी विशेष प्रसंग में निहित होता है। यदि ऐसी बात न होता तो पञ्चलक्षण युक्त एक ही महापुराण पर्याप्त होता। सम्भव है कि मूल संहिता में इन विशेष उद्देश्यों का मूल विद्यमान रहा हो । परन्तु इस समय पुराणों पर भिन्न भिन्न सम्प्रदायों का बड़ा प्रभाव पड़ा हुआ दिखाई पड़ता है । ब्राह्म, शैव, वैष्णव, भागवत आदि पुराणों के नामों से ही प्रतीत होता है कि ये विशेष सम्प्रदायों के ग्रन्थ हैं। इतिहास से ऐसा निश्चित नहीं होता कि इन पुराणों की रचना के अनन्तर उक्त सम्प्रदाय चल पड़े अथवा सम्प्रदाय पहले से थे और उन्होंने अपने-अपने अनुगत पुराणों का व्यासजी की शिष्य परम्परा से निर्माण कराया। अथवा बाद में सम्प्रदायों के अनुयायी पण्डितों ने अपने सम्प्रदाय के अनुकूल पुराणों में कुछ परिवर्तन और परिवर्द्धन किये हैं। ___ अवतारवाद पुराणों का प्रधान अङ्ग है। प्रायः सभी पुराणों में अवतार प्रसङ्ग दिया हुआ है। शैवमतपरिपोषक पुराणों में भगवान् शङ्कर के नाना अवतारों की चर्चा है। इसी तरह वैष्णव प्रणाली में भी विष्ण के अगणित अवतार बताये गये हैं। इसी तरह अन्य पुराणों में अन्य देवों के अवतारों की चर्चा है । यह ध्यान रहे कि अवतारवर्णन वैदिक सूत्रों पर अवलम्बित है। शतपथ ब्राह्मण में (१.८.१.२-१०) मत्स्यावतार का, तैत्तिरीय आरण्यक (१.२३.१) और शतपथ ब्राह्मण में (१.४.३ ५) कूर्मावतार का, तैत्तिरीय संहिता (७.१.५.१), तैत्तिरीय ब्राह्मण (१.१.३.५) और शत० ब्रा० में (१४.१.२.११) वराह अवतार का, ऋक् संहिता (१.१७) और शतपथ ब्राह्मण (१.२.५.१-७) में वामन अवतार का, ऐतरेय ब्रा० में राम-भार्गवावतार का, छान्दोग्योपनिषद् में (३.१७) देवकीपुत्र कृष्ण का और तैत्ति० आ० में (१०.१.६) वासुदेव कृष्ण का वर्णन है । अधिकांश वैदिक ग्रन्थों के मत से कूर्म, वराहआदि अवतारों की जो कथा कही गयी है वह ब्रह्मा के अवतार की कथा है। वैष्णव पुराण इन्हीं अवतारों को विष्णु का अवतार बताते हैं। भविष्य जैसे कई पुराण सौर पुराण हैं। उनमें सूर्य के अवतार गिनाये गये हैं। मार्कण्डेय आदि शाक्त पुराणों में देवी के अवतारों का वर्णन है। पुराण वेदों के उपाङ्ग कहे जाते हैं । तात्पर्य यह है कि वेद के मन्त्रों में देवताओं की स्तुतियाँ मात्र हैं । ब्राह्मण भाग में कहीं कहीं यज्ञादि के प्रसङ्ग में कथा-पुराण का संक्षेप में ही उल्लेख है। परन्तु विस्तार के साथ कथाओं और उपाख्यानों का कहीं होना आवश्यक था । इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए पुराणों की रचना हुई जान पड़ती है। अठारहों पुराणों का प्रधान उद्देश्य यह प्रतीत होता है कि ब्रह्मा, विष्ण, शिव, सूर्य, गणेश और शक्ति की उपासना अथवा ब्रह्मा को छोड़कर शेष पाँच देवताओं की उपासना का प्रचार हो और इन पाँच देवताओं में से एक को उपासक प्रधान माने, शेष चार को गौण किन्तु प्रधान में अन्तनिहित। पुराणों के प्रतिपादन का समीकरण करने से पता चलता है कि परमात्मा के पाँचों भिन्न-भिन्न सगुण रूप माने गये हैं। सृष्टि में इनका कार्यविभाग अलगअलग है । ब्रह्मा की पूजा और उपासना आजकल देखी नहीं जाती है, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि ब्रह्मा की उपासना का गणेश की उपासना में विलयन हो गया है। पुराणों की कथाओं में अनेक स्थलों पर भेद दिखाई पड़ते हैं। ऐसे भेदों को साधारणतया कल्पभेद की कथा से पुराणवेत्ता लोग समझा दिया करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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