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________________ पाशुपत ब्रह्मोपनिषद् पाशुपतव्रत शीघ्र ही शहर की स्तुति आती है। इस नियम के अनु सार नारायणीय उपाख्यान के समान पाशुपत मत का सविस्तर वर्णन महाभारत, शान्तिपर्व के २८० वें अध्याय में आया है । २८४वें अध्याय में विष्णु स्तुति के पश्चात् दक्ष द्वारा शङ्कर की स्तुति की गयी है। इस समय शङ्कर ने दक्ष को 'पाशुपतव्रत' बतलाया है। इस वर्णन से पाशुपत मत की कल्पना की गयी है। इस मत में पशुपति सब देवों में मुख्य हैं । वे ही सारी सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता हैं । पशु का अर्थ समस्त सृष्टि है, अर्थात् ब्रह्मा से स्थावर तक सब पदार्थ उनकी सगुण भक्ति करने वालों में कार्तिकेय स्वामी, पार्वती और नन्दीश्वर भी सम्मिलित किये जाते हैं । शङ्कर अष्टमूर्ति है, उनकी मूर्तियाँ हैं- महाभूत, सूर्य, चन्द्र और पुरुष । अनुशासन पर्व में उपमन्युचरित्र के साथ इस मत के विकास का घोड़ा आख्यान दृष्टिगोचर होता है । पाशुपत तथा पाञ्चरात्र मत में अति सामीप्य है। दोनों के मुख्य दार्शनिक आधार सांख्य तथा योग दर्शन हैं। शैव धर्म के सम्बन्ध में एक बात और ध्यान देने योग्य है कि पाशुपत ग्रन्थों में लिङ्ग को अति अर्चनीय बतलाया गया है। आज भी संलिङ्गपूजक है। इसका प्रचलन कब से है, यह विवादास्पद है । पुरातत्त्वज्ञों के विचार से यह ईसा के पूर्व से चला आ रहा है। ऋग्वेद के शिश्नदेव शब्द से इसके प्रचार की शलक मिलती है। संभवतः भारत के आदिवासियों में प्रचलित धर्म से इसका प्रारम्भ माना जा सकता है । हिन्दुओं द्वारा लिङ्गार्चन मूर्तियों और मन्दिरों में पहले से ही प्रवर्तित था, किन्तु ब्राह्मणों द्वारा इसे ई० सन् के बाद मान्यता प्राप्त हुई । पाशुपत मत के गठन के समय तक लिङ्गपूजा को मान्यता मिल चुकी थी अथर्वशिरम् उपनिषद् में पाशुपत मत का विवरण है । तथा यह महाभारत में वर्णित पाशुपत प्रकरण का सम कालीन ही है । रुद्र पशुपति को इसमें सभी पदार्थों का प्रथम तत्त्व बताया गया है तथा वे ही अन्तिम लक्ष्य हैं। यहाँ पर पति, पशु और पाश तीनों का उल्लेख है तथा 'ओम्' के उच्चारण के साथ योग साधना को श्रेष्ठ बताया गया है । इसी समय की तीन और पाशुपत उपनिषदें हैं - अथर्वशिरस्, नीलरुद्र तथा कैवल्य । पाशुपत सम्प्रदाय के सिद्धान्त संक्षेप में इस प्रकार हैं- जीव की संज्ञा 'पशु' है, अर्थात् जो केवल जैव स्तर पर इन्द्रियभोगों में लिप्त रहता है वह पशु है। भगवान् Jain Education International शिव पशुपति हैं । उन्होंने बिना किसी बाहरी कारण, साधन अथवा सहायता के इस संसार का निर्माण किया है। वे जगत् के स्वतन्त्र कर्त्ता हैं। हमारे कार्यों के भी मूल कर्त्ता शिव ही हैं । वे समस्त कार्यों के कारण हैं । संसार के मल- विषय आदि पाश हैं जिनसे जीव बँधा रहता है। इस पाश अथवा बन्धन से मुक्ति शिव की कृपा से प्राप्त होती है । मुक्ति दो प्रकार की है; सब दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति और परमैश्वर्य की प्राप्ति द्वितीय भी दो प्रकार की है - शक्तिप्राप्ति और क्रिया-शक्तिप्राप्ति दृशक्ति से सर्वज्ञता प्राप्त होती है, क्रियाशक्ति से वांछित पदार्थ तुरंत प्राप्त होते हैं। इन दोनों शक्तियों की प्राप्ति ही परमेश्वर्य है । केवल भगवद्दासत्व की प्राप्ति मुक्ति नहीं बन्धन है । पाशुपत दर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम तीन प्रमाण माने जाते हैं । धर्मार्थसाधक व्यापार को विधि कहते हैं । विधि दो प्रकार की होती है--व्रत और द्वार । भस्मस्नान, भस्मशयन, जप, प्रदक्षिणा, उपवास आदि व्रत हैं। शिव का नाम लेकर हहाकर हँसना, गाल बजाना, गाना, नाचना, जप करना आदि उपहार हैं । व्रत एकान्त में करना चाहिए । 'द्वार' के अन्तर्गत क्राथन ( जगते हुए भी गायनमुद्रा), स्पन्दन (वायु के झोंके के सदृश हिलना ), मन्दन ( उन्मत्तवत् व्यवहार करना) श्रृंगारण ( कामार्त न होते हुए भी कामातुर के सदृश व्यवहार करना), अवित्करण (अविकियों की तरह निषिद्ध व्यवहार करना) और अविद्भाषण ( अर्थहीन और व्याहत शब्दों का उच्चारण), ये छः क्रियाएँ सम्मिलित हैं । पाशुपत ब्रह्मोपनिषद् - यह परवर्ती उपनिषद् है । पाशुपतमत दे० 'पाशुपत' । पाशुपतव्रत -- ( १ ) यह व्रत चैत्र मास में आरम्भ होता है । एक छोटा शिवलिङ्ग बनाकर उसे चन्दनमिश्रित जल से स्नान कराया जाता है । एक सुवर्णकमल के ऊपर शिवलिङ्ग स्थापित किया जाता है। तदनन्तर बिल्व पत्रों, कमलपुष्पों (श्वेत रक्त नोल) एवं अन्यान्य उपचारों से पूजन किया जाता है। यह व्रत चैत्र मास में प्रारम्भ होकर प्रति मास आयोजित होता है। वैशाख मास से प्रति मास क्रमशः हीरक, पन्ना, मोती, नीलम, माणिक्य, गोमेद, मूंगा, सूर्यकान्त तथा स्फटिक मणि से लिङ्गों का निर्माण होना चाहिए वर्ष के अन्त में एक गौ का दान For Private & Personal Use Only ३९७ 1 www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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