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________________ नामकीर्तन-नारदपञ्चरात्र ३६१ हैं--(१) नाक्षत्र नाम, (२) मासदेवतापरक नाम, (३) कारण विशेष पहचान होता था। ब्राह्मणों में दूसरा नाम कुलदेवतापरक नाम तथा (४) लौकिक नाम । जिनके पैतृक या मातृक होता था। यथा कक्षीवन्त औशिज बच्चे जीते नहीं वे प्रतीकारात्मक अथवा घृणास्पद नाम (उशिज नाम्नी उनकी माता), बृहदुक्थ वामनेय (वामनी भी रखते हैं। का पुत्र ), भार्गव मौद्गल्य ( पितृबोधक नाम )। कभीनामकरण संस्कार शिशु के जन्म के अनन्तर दसवें कभी स्त्री का नाम पति के नाम से सम्बन्धित होता थाअथवा बारहवें दिन किया जाता है। शिशु का गुह्यनाम उशीनराणी, पुरुकुत्सानी तथा मुद्गलानी आदि । जन्मदिन को ही रखा जाता है। विकल्प रूप से दो वर्ष नाम-रूप-दृश्य जगत् के संक्षिप्त वर्णन के लिए यह पद के भीतर नामकरण अवश्य करना चाहिए। जननाशौच प्रयुक्त होता है। संसार के सम्पूर्ण पदार्थ अपनी विविधता प्रयुक्त होता है। संसार के सम्पूण पदाथ बीत जाने पर घर आदि की सफाई की जाती है। तत्प में इन्हीं दोनों परिकल्पनाओं से जाने जाते हैं । ब्राह्मणों में श्चात् शिशु और माता को स्नान कराया जाता है । प्रार आख्यान है कि ब्रह्म नाम-रूपात्मक जगत् का विस्तार कर म्भिक धार्मिक कृत्य करने के पश्चात् माता शिशु को शुद्ध उसी में प्रविष्ट हो गया। इस प्रकार समस्त नाम-रूपावस्त्र से ढककर उसे पिता को सौंप देती है । तदनन्तर त्मक जगत् ब्रह्ममय है। परन्तु तात्त्विक रूप से ब्रह्म को प्रजापति, तिथि, नक्षत्र, नक्षत्रदेवता, अग्नि तथा सोम को जानने के लिए विविध नाम-रूपों को छोड़कर एकत्व की आहुतियाँ दी जाती हैं। पिता शिशु के श्वास-प्रश्वास को अनुभूति आवश्यक होती है। अतः उपनिषदों में प्रायः स्पर्श करके उसे सचेत करता है । इसके पश्चात् सुनिश्चित कहा गया है 'नापरूपे विहाय' ब्रह्म को समझो। नाम रखा जाता है। पिता शिशु के कान के पास कहता नारद-अथर्ववेद (५.१९,९,१२.४,१६,२४,४१) में नारद है : "हे शिशु, तुम कुलदेवता के भक्त हो, तुम्हारा नाम नामक एक ऋषि का नामोल्लेख अनेक बार हुआ है। अमुक है....आदि।" उपस्थित ब्राह्मण तथा स्वजन कहते ऐतरेय ब्राह्मण में हरिश्चन्द्र के पुरोहित (६.१३), सोमक हैं : "यह नाम प्रतिष्ठित हो।" इसके पश्चात् ब्राह्मण साहदेव्य के शिक्षक (७.३४ ) तथा आम्बष्ठय एवं भोजन तथा आशीर्वचन के साथ संस्कार समाप्त होता है। यधाश्रौष्टि को अभिषिक्त करने वाले के रूप में नारद युधाधाष्टि नामकीर्तन-नवधा (नव प्रकार की ) भक्ति में कीर्तन पर्वत से युक्त व्यवहृत हुए है । मैत्रायणी संहिता (१.८,८) का दूसरा स्थान है । गौराङ्ग महाप्रभु के समय से बंगाल में ये एक आचार्य और सामविधानब्राह्मण ( ३.९ ) में में 'नामकीर्तन' की मण्डलियाँ बड़े उत्साह से कीर्तन बृहस्पति के शिष्य के रूप में वर्णित हैं। छान्दोग्योपनिकरती आ रही हैं। आजकल नामकीर्तन का प्रचार षद (६.१, १ ) में ये सनत्कुमार के साथ उल्लिखित हैं। सभी धार्मिक सम्प्रदायों में दीख पड़ता है। पुराणों में नारद का नाम बारम्बार सङ्गीत विद्या के आचार्य के रूप में आया है। नारद नामक एक स्मृतिकार नामदेव-रामोपासक वैष्णवों में भक्तवर नामदेव का नाम भी हुए हैं । महाभारत में मोक्षधर्म के नारायणीय आख्यान आदर से लिया जाता है। इन्होंने महाराष्ट्र में रामोपा में नारद की उत्तरदेशीय यात्रा का विवरण है, जिसमें सना का विशेष प्रचार किया था । नामदेव का समय उन्होंने नर-नारायण ऋषियों की तपश्चर्या देखकर उनसे १३वीं शती का अन्त एवं १४वीं का प्रारम्भ है । उनकी प्रश्न किया तथा उन्होंने नारद को 'पाञ्चरात्र' धर्म अनेक रचनाएँ सिक्खों के 'ग्रन्थ साहब' में उद्धृत है । सुनाया। नामप्रकार-गृह्यसूत्रों में बालकों के कई प्रकार के नारदकुण्ड-बदरीनाथ में तप्तकुण्ड से अलकनन्दा तक नाम रखने के अनेक नियम दिये गये हैं, किन्तु अधिक एक पर्वतशिला फैली हुई है। इसके नीचे अलकनन्दा के महत्त्वपूर्ण है गुह्य एवं साधारण नामों का अन्तर । ऋग्वेद किनारे पर नारदकुण्ड है जहाँ यात्री पुण्यार्थ स्नान तथा ब्राह्मणों में भी गुह्य नाम का उल्लेख है। शतपथ करते हैं । व्रज में गोवर्धन पर्वत के निकट भी एक नारदब्राह्मण में इन्द्र का एक गुह्यनाम अर्जुन है । शतपथ कुण्ड है। ब्राह्मण में एक अन्य नाम सफलताप्राप्ति के लिए ग्रहण नारदपरिवाजक उपनिषद्-यह एक परवर्ती उपनिषद् है। करने को कहा गया है। दूसरे नाम के धारण करने का तारदपञ्चरात्र-प्राचीन 'पाञ्चरात्र' सम्प्रदाय का प्रतिपा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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