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________________ नवरात्रि-नागदेवभट्ट ३५५ दीय नवरात्र में तो नवों दिन बड़ा ही उत्सव मनाया रूप धारण किया। न उसमें तत्त्वनिर्णय रहा, न तत्त्वजाता है। विशेष कर षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी और नवमी निर्णय की सामर्थ्य । केवल तर्क-वितर्क का घोर विस्तार को देवी की पूजा का अति माहात्म्य है। देवी की प्रति- हुआ। परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि प्रमाण के विशेष माओं का पूजन सारे देश में, विशेष कर वंगदेश में बड़ी अध्ययन का यह अद्भुत उपक्रम है। धूमधाम से होता है। नवरात्र में 'दुर्गासप्तशती' का नाक-जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण ( ३.१३, ५) में 'नाक' पाठ प्रायः देवीभक्त विशेषतया करते हैं । एक आचार्य का नाम है। सम्भवतः ये नाक, शतपथ नवरात्रि-दे० 'नवरात्र'। ब्राह्मण (१२.५, २, १,), बृहदारण्यक उपनिषद् ( ६.४, नवव्यूहार्चन-शुक्ल पक्ष की किसी एकादशी अथवा ४) तथा तैत्तिरीय उपनिषद् ( १.९, १) में उद्धृत आषाढ़ अथवा फाल्गुन की संक्रान्ति के दिन इस व्रत का नाक मौद्गल्य ( मुद्गल के वंशज ) से अभिन्न है । अनुष्ठान किया जाता है। इस दिन भगवान् विष्णु की नाक्र-यजुर्वेद संहिता में उद्धृत अश्वमेध यज्ञ सम्बन्धी पूजा की जाती है। किसी सुन्दर स्थल पर ईशानमुखीय बलिपशु तालिका में नाक्र नामक एक जलीय जन्तु का भगवान् विष्णु का मण्डप बनाना चाहिए। मण्डप में द्वार नामोल्लेख भी है। सम्भवतः इस पशु का नाक अर्थ तथा इसके मध्य में कमल की आकृति अंकित होनी है, जिसे पीछे संस्कृत में 'नक' कहा गया । चाहिए। देवताओं के अष्ट आयुधों को आठों दिशाओं नाग-शतपथ ब्राह्मण में यह शब्द एक बार ( ११.२, ७, में अंकित करना चाहिए । यथा वज्र, शक्ति, गदा ( यम- १२) महानाग के अर्थ में व्यवहृत हुआ है । बृहदारण्यक राज की ) खङ्ग, वरुणपाश, ध्वज, गदा ( कुबेर की) उपनिषद् ( १,३, २४ ) तथा ऐतरेय ब्राह्मण ( ८.२१) और त्रिशूल ( शिवजी का)। भगवान् वासुदेव, संकर्षण, में स्पष्ट रूप से इसका अर्थ 'सर्प' है। सूत्रों में पौराणिक नारायण तथा वामन ( जो भगवान् के ही व्यूह है ) के 'नाग' का भी उल्लेख है जिसकी पूजा होती थी। नाग लिए होम करना चाहिए। अथवा सर्प-पूजा हिन्दू धर्म का एक अङ्ग है जो अन्य कई नवान्नभक्षण-नयी फसल आने पर नव धान्य का ग्रहण धर्मों में भी किसी न किसी रूप में पायी जाती है। चपकरना नवान्नभक्षण कहलाता है। सूर्य के वृश्चिक राशि लता, शक्ति और भयंकरता के कारण नाग ने मनुष्य का के १४ अंश में प्रवेश करने से पूर्व इसका अनुष्ठान होना ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। कई जातियों और वंशों ने 'नाग' को अपना धर्मचिह्न स्वीकार किया है। चाहिए। दे० कृत्यसारसमुच्चय, २७ । नीलमत कुछ जातियों में नाग ( सर्प ) अवध्य समझा जाता है। पुराण ( पृ० ७२, पद्य ८८०-८८८ ) में इस समारोह का नामतृतीया-(१) यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को वर्णन मिलता है। इसमें गीत, संगीत, वेदमन्त्रादि का आरम्भ होता है और तिथिव्रत है। यह एक वर्ष तक उच्चारण तथा ब्रह्मा, अनन्त ( शेष ) तथा दिक्पालों का चलता है। प्रतिमास गौरी के बारह नामों में से एक पूजन होना चाहिए। नाम लेते हुए उनका पूजन करना चाहिए । नाम ये हैं-वादक, बौद्ध और जन नयायिकों के बीच गौरी, काली, उमा, भद्रा, दुर्गा, क्रान्ति, सरस्वती, विक्रम की पांचवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी मंगला, वैष्णवी, लक्ष्मी, शिवा और नारायणी। ऐसा तक बराबर विवाद चलता रहा। इससे खण्डन-मण्डन विश्वास है कि इससे स्वर्गप्राप्ति होती है। के अनेक ग्रन्थ बने । चौदहवीं शताब्दी में गङ्गेश उपा- (२) भगवान महेश्वर की अर्धनारीश्वर रूप में पूजा ध्याय हुए, जिन्होंने 'नव्य न्याय' की नींव डाली। करनी चाहिए। इससे व्रती को कभी भी पत्नी वियोग प्राचीन न्याय में प्रमेय आदि जो सोलह पदार्थ थे उनमें नहीं भोगना पड़ता । अथवा हरिहर की प्रतिमा का से और सबको किनारे करके केवल 'प्रमाण' को लेकर केशव से दामोदर तक बारह नाम लेते हुए पूजन प्रति ही भारी शब्दाडम्बर खड़ा किया गया। इस नव्य न्याय मास करना चाहिए। का आविर्भाव मिथिला में हआ। मिथिला से नवद्वीप नागदेवभट्ट-विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में ( नदिया ) में जाकर नव्य न्याय ने और भी विशाल सन्त चक्रधर ने मानभाउ सम्प्रदाय का जीद्धिार किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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