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________________ द्रोण-द्वारका ३३५ (२) महाभारत के अनुसार पञ्चाल देश के राजा का भोजन का विधान है । कृष्णपक्ष की सप्तमी को भी उपवास नाम द्रुपद था, जिसकी पुत्री द्रौपदी थी। यह महाभारत आदि करना पुण्यकारी है। के प्रमुख पात्रों में है। द्वादशीव्रत-यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को प्रारम्भ द्रोण-लकड़ी की नांद, जिसका उपयोग विशेष कर सोमरस होता है और एक वर्ष तक अथवा जीवन पर्यन्त चलता रखने के पात्र के रूप में (ऋक्० ९.३,१;१५,७२८,४; है। इसमें एकादशी को उपवास तथा द्वादशी को विष्णु ३०,४,६७,१४) बतलाया गया है । लड़की के बृहत् पात्र का पुष्पादि के उपचार सहित पूजन होता है। ऐसा को द्रोणकलश (त० सं० ३.२,१,२; वाज० सं० १८.२१; विश्वास है कि यदि एक वर्ष तक इस व्रत का आचरण १९.२७; ऐ० ब्रा० ७.१७,३२; शत० ब्रा० १.६,३,१६ किया जाय तो पापों से शुद्धि होती है। यदि जीवन पर्यन्त आदि) कहा जाता था। यज्ञवेदी कभी-कभी द्रोणकलश की। इस व्रत का आचरण किया जाय तो मनुष्य श्वेतद्वीप प्राप्त आकृति की बनायी जाती थी। करता है । यदि कृष्ण तथा शुक्ल दोनों पक्षों की द्वादशियों द्वादशमासर्भवत-कार्तिकी पूर्णिमा (कृत्तिका नक्षत्र युक्त) को व्रताचरण किया जाय तो स्वर्ग की उपलब्धि होती है। को इस व्रत का आरम्भ होता है । इसमें नरसिंह भगवान् यदि जीवनपर्यन्त इस व्रत का आचरण किया जाय तो के पूजन का विधान है। मृगशिरा नक्षत्रयुक्त मार्गशीर्ष विष्णुलोक को प्राप्ति होती है। की पूर्णिमा को भगवान राम का पूजन होना चाहिए। द्वादशलक्षणी-मीमांसा शास्त्र में यज्ञों का विस्तृत विवेचन पुष्य नक्षत्रयुक्त पौष की पूर्णिमा को बलरामजी का पूजन है, इस कारण इसे 'यज्ञविद्या' भी कहते हैं। बारह करना चाहिए । मघा नक्षत्रयुक्त माघी पूर्णिमा को वराह अध्यायों में विभक्त होने के कारण यह पूर्वमीमांसा शास्त्र भगवान् का पूजन, फाल्गुनी नक्षत्रों से युक्त फाल्गुनपूर्णिमा 'द्वादशलक्षणी' भी कहलाता है। को नर तथा नारायण का पूजन और इस प्रकार से अन्य द्वादशस्तोत्र--मध्वाचार्य रचित यह एक स्तोत्र ग्रन्थ का पूर्णिमाओं को अन्य देवों का श्रावणी पूर्णिमा तक पूजन नाम है। होना चाहिए। द्वापर-चतुर्युगी का तीसरा युग। इसका शाब्दिक अर्थ है द्वादशसप्तमीव्रत-चैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रारम्भ कर प्रत्येक विचारद्वन्द्व' अथवा 'दुविधा'। इस युग के अन्त में मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन वर्ष भर भगवान् अनेक द्वन्द्व अथवा संघर्ष-सामाजिक, राजनीतिक, सूर्य का भिन्न-भिन्न नामों एवं षडक्षर मन्त्र ‘ओं नमः धार्मिक, दार्शनिक, वैचारिक आदि उत्पन्न हो गये थे। सूर्याय' से पूजन होना चाहिए । इस व्रत के अनुष्ठान से युगपुरुष भगवान् कृष्ण ने उनका समाधान श्रीमद्अनेक गम्भीर रोगों, जैसे कुष्ठ, जलोदर तथा रक्तामाशय भगवद्गीता में प्रस्तुत किया। दे० कृतयुग' । से मुक्ति मिलती है तथा सुस्वास्थ्य प्राप्त हो जाता है। द्वारका-यह भारत की सात पवित्र पुरियों में से है, जिनकी द्वादशादित्यव्रत-मार्गशीर्ष शक्ल द्वादशी को इस व्रत का सूची निम्नांकित है : आरम्भ होता है। इसमें द्वादश आदित्यों (धाता, मित्र, अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका । अर्यमा, पूषा, शक्र, वरुण, भग, त्वष्टा, विवस्वान्, सविता पुरी द्वारवती चैव सप्तता मोक्षदायिकाः ।। तथा विष्णु) का पूजन होता है । व्रत के अन्त में सुवर्ण का भगवान् कृष्ण के जीवन से सम्बन्ध होने के कारण दान विहित है । इससे सवितृलोक की उपलब्धि इसका विशेष महत्त्व है। महाभारत के वर्णनानुसार कृष्ण होती है। का जन्म मथुरा में कंस तथा दूसरे दैत्यों के वध के लिए द्वादशाहसप्तमी-यह व्रत माघ शुक्ल सप्तमी को प्रारम्भ हुआ । इस कार्य को पूरा करने के पश्चात् वे द्वारका होता है। एक वर्ष तक सप्तमी को उपवास तथा भगवान् (काठियावाड़) चले गये । आज भी गुजरात में स्मार्त ढंग की सूर्य के भिन्न-भिन्न नामों से पूजन का विधान है। माघ कृष्णभक्ति प्रचलित है। यहाँ के दो प्रसिद्ध मन्दिर 'रणमें वरुण नाम से, फाल्गुन में तपन नाम से, चैत्र में धाता छोड़राय' के है, अर्थात् उस व्यक्ति से सम्बन्धित है जिसने नाम से तथा इसी प्रकार से अन्य मासों में विभिन्न नामों ऋण (कर्ज) छुड़ा दिया। इसमें जरासंध से भय से कृष्ण से पूजन करना चाहिए । आने वाली अष्टमी को ब्राह्मण- द्वारा मथुरा छोड़कर द्वारका भाग जाने का अर्थ भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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