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________________ दोहयाचार्य-द्रमिलाचार्य (द्रविडाचार्य) पण्ढरपुर, आलन्दी एवं देहु हैं, यद्यपि सारे प्रदेश में भाग- साम का रचयिता कहा गया है । अनुक्रमणी उसे एक बतमन्दिर बिखरे पड़े हैं । 'देहु' भागवत सम्प्रदाय के ऋषि तथा ऋग्वेद के एक सूक्त ( ८.९६ ) का रचनाकार प्रमुख तीर्थों में से है। बताती है। दोड्याचार्य-वेदान्तदेशिक वेङ्कटनाथ की कृति 'शतदूषणी' द्यौ-आकाशीय देवपरिवार की मान्यता, जिसका अधिष्ठान के टोकाकार । 'चण्डमारुत' आदि टीकाएँ उनकी बनायी द्यौ' है, भारोपीय काल से आरम्भ होती है। 'द्यौं' हुई हैं । वे रामानुज संप्रदाय के अनुयायी और अप्पय्य की स्तुति ऋग्वेद में पृथ्वी के साथ 'द्यावापृथिवी' दीक्षित के समसामयिक थे । उनका काल सोलहवीं के रूप में की गयी है। पृथ्वी से अलग ‘द्यौ' की एक शताब्दी कहा जा सकता है। वाधूलकुलभूषण श्रीनिवा- भी स्तुति नहीं है, जबकि पृथ्वी की अलग एक स्तुति है। साचार्य उनके गुरु थे। गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् इन ऋचाओं में द्यो एवं पृथ्वी को देवताओं के पिताउन्हें 'महाचार्य' की उपाधि मिली । उनका जन्मस्थान माता कहा गया है ( ७.५३,१) एवं वे सत्रों में अपने शोलिङ्कर है । वेदान्ताचार्य के प्रति उनकी प्रगाढ़ भक्ति बालकों के साथ ऋत के स्थान पर आसीन होने के लिए थी। उनके ग्रन्थों के नाम इस प्रकार है-चण्डमारुत, आमंत्रित किये जाते है । वे स्वर्गीय परिवार के घटक हैं अद्वैतविद्याविजय, परिकरविजय, पाराशर्यविजय, ब्रह्म- ( दैव्यजन, ७.५३.२ )। वे सूर्य एवं विद्युत् रूपी विद्याविजय, ब्रह्मसूत्रभाष्योपन्यास, वेदान्तविजय, सद्विद्या- अग्नि के पिता हैं (पितरा, ७.५३,२;१.१६०,३ या विजय और उपनिषन्मङ्गलदीपिका। मातरा, १.१५९,३ एवं १.१६०,२)। पिता-माता दोलोत्सव-यह उत्सव भिन्न-भिन्न तिथियों में भिन्न-भिन्न के रूप में वे सभी जीवों की रक्षा करते हैं तथा धन, देवताओं के लिए मनाया जाता है । पद्मपुराण ( ४.८०. कीर्ति एवं राज्य का दान करते हैं। ऋग्वेद में द्यौ का ४५-५० ) के अनुसार कलियुग में फाल्गुन मास की चतु- जो चित्र अङ्कित है उसके अनुसार पिता द्यौ प्रेमपूर्वक दशी के दिन आठवें पहर अथवा पूर्णिमा और प्रतिपदा के माता पृथ्वी पर झुककर वर्षा के रूप में अपना बीज दान मिलन के समय यह व्रतोत्सव मनाया जाता है । कृष्ण करता है, जिसके फलस्वरूप पृथिवी फलवती होती है । भगवान् को झूले में दक्षिणाभिमुख बैठे हुए देखकर मनुष्य ऋग्वेद (६.७०,१-५ ) में वर्षा की उपमा मधु एवं पापों के संघात से मुक्त हो जाता है । चैत्र शुक्ल तृतीया दुग्ध से दी गयी है। गौरी के दोलोत्सव का दिन है। रामचन्द्रजी का भी द्रप्स-ऋग्वेद एवं परवर्ती ग्रन्थों में द्रप्स का अर्थ 'घुट' दोलोत्सव मनाया जाता है। है । सायण के अनुसार इसका अर्थ 'मोटी बूंद' है जिसका मथुरा, वृन्दावन, अयोध्या, द्वारका तथा कुछ अन्य प्रतिलोम शब्द 'स्तोक' है । इस प्रकार प्रायः 'दधिद्रप्स' स्थानों में भगवान् राम और कृष्ण का दोलोत्सव समारोह का उल्लेख आता है । इसका प्रयोग तैत्तिरीय संहिता के साथ मनाया जाता है। ( ३.३,९१ ) में 'सोम की मोटी बूंद' के रूप में है। द्वचणुक-वैशेषिक दर्शन का अणवादी सिद्धान्त है, उसके दो सन्दर्भो में, राथ के विचार से इसका अर्थ ध्वज है अनुसार सृष्टि के आरम्भ में परमाणु क्रियाशील होते हैं जबकि गोल्डनर इसका अर्थ धूल लगाते हैं। मैक्समूलर और एक-दूसरे से मिलने लगते है । दो परमाणुओं के ने एक परिच्छेद में इसका अर्थ 'वर्षा की बँद' लगाया है। मिलने से एक व्यणुक बनता है तथा तीन घणुक मिलकर द्रव्य--वैशेषिक मतानुसार नव द्रव्य है-पृथ्वी, जल, एक त्र्यणुक बनाते हैं । यही पदार्थ की लघुतम इकाई है। अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा (असंख्य) द्युतान मारुत-मरुत् के वंशज एक देवता का नाम । एवं मन । इन्हीं से मिलकर संसार के सारे पदार्थ वाजसनेयी संहिता ( ५.२७ ) एवं तैत्तिरीय संहिता बनते हैं। ( ५.५,९,४) में उसके आमन्त्रण करने का उल्लेख मिळाचार्य ( द्रविडाचार्य )-एक प्राचीन वेदान्ती । इन्होंहै । काठक सहिता में भी उसका उल्लेख आया है । शत- ने छान्दोग्य उपनिषद् पर अति बृहद् भाष्य लिखा था । पथ ब्राह्मण ( ३.६,१,१६ ) में उसके नाम का अर्थ बृहदारण्यक उपनिषद् पर भी इनका भाष्य था, ऐसा वाय है, जबकि पञ्चविंश ब्राह्मण ( ६.१,७) में उसे प्रमाण मिलता है। माण्डूक्योपनिषद् के (२.३२; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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