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________________ तन्त्र-तन्मात्रा २९३ इस शास्त्र के सिद्धान्तानुसार कलियुग में वैदिक मन्त्रों, तन्त्र बौद्ध तन्त्रों से भी पहले प्रकटित हए हैं, इसमें जपों और यज्ञों आदि का फल नहीं होता। इस युग में सन्देह नहीं। सब प्रकार के कार्यों की सिद्धि के लिए तन्त्रशास्त्र में तन्त्रों के मत से सबसे पहले दीक्षा ग्रहण करके तान्त्रिक वर्णित मन्त्रों और उपायों आदि से ही सफलता मिलती कार्यों में हाथ डालना चाहिए । बिना दीक्षा के तान्त्रिक है । तन्त्र शास्त्र के सिद्धान्त बहुत गुप्त रखे जाते हैं और कार्य में अधिकार नहीं है। इसकी शिक्षा लेने के लिए मनुष्य को पहले दीक्षित होना ___ तान्त्रिक गण पाँच प्रकार के आचारों में विभक्त हैं, ये पड़ता है। आजकल प्रायः मारण, उच्चाटन, वशीकरण श्रेष्ठता के क्रम से निम्नोक्त हैं : वेदाचार, वैष्णवाचार, आदि के लिए तथा अनेक प्रकार की सिद्धियों के लिए शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्ताचार एवं तन्त्रोक्त मंत्रों और क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है। कौलाचार । ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ माने जाते हैं । यह शास्त्र प्रधानतः शाक्तों (देवी-उपासकों) का है तन्त्रचूडामणि-कृष्णदेव निर्मित 'तन्त्रचूडामणि' प्रसिद्ध और इसके मन्त्र प्रायः अर्थहीन और एकाक्षरी हुआ करते तान्त्रिक ग्रन्थ है। हैं । जैसे-ह्रीं, क्लीं, श्रीं, ऐं, कं आदि । तान्त्रिकों का तन्त्ररत्न--पार्थसारथि मिश्र रचित यह जैमिनिकृत 'पूर्वपञ्च मकार सेवन (मद्य, मांस, मत्स्य आदि) तथा चक्र- मीमांसासूत्र' की टीका है। रचनाकाल लगभग १३०० पूजा का विधान स्वतंत्र होता है । अथर्ववेद में भी मारण, ई० है। मोहन, उच्चाटन और वशीकरण आदि का विधान है। तन्त्रराज-यह तान्त्रिक ग्रन्थ अधिक सम्मान्य है। इसमें परन्तु कहते हैं कि वैदिक क्रियाओं और तन्त्र-मन्त्रादि लिखा है कि गौड़, केरल और कश्मीर इन तीनों देशों के विधियों को महादेवजी ने कीलित कर दिया है और लोग ही विशुद्ध शाक्त हैं। भगवती उमा के आग्रह से कलियुग के लिए तन्त्रों की तन्त्रवार्तिक-भट्टपाद कुमारिल रचित यह ग्रन्थ पूर्वमीमांरचना की है । बौद्धमत में भी तन्त्र ग्रन्थ है । उनका सादर्शन के शाबर भाष्य का समर्थक तथा विवरणात्मक प्रचार चीन और तिब्बत में है। हिन्दू तान्त्रिक उन्हें है। इसमें प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद से लेकर द्वितीय उपतन्त्र कहते हैं। और तृतीय अध्याय तक भाग की व्याख्या है। प्रथम तन्त्रशास्त्र की उत्पत्ति कब से हई इसका निर्णय नहीं अध्याय के प्रथम पाद की व्याख्या 'श्लोकवार्तिक' में की हो सकता। प्राचीन स्मतियों में चौदह विद्याओं का गयी है। उल्लेख है किन्तु उनमें तन्त्र गृहीत नहीं हुआ है। इनके तन्त्रसार-इसकी रचना संवत् १८६० वि० में मानी जाती सिवा किसी महापुराण में भी तन्त्रशास्त्र का उल्लेख नहीं है। इसमें दक्षिणमार्गीय आचारों का विधान है। है। इसी तरह के कारणों से तन्त्रशास्त्र को प्राचीन काल सुन्दर श्लोकों से परिपूर्ण इसके पृष्ठों में अनेक यन्त्र, में विकसित शास्त्र नहीं माना जा सकता। अथर्ववेदीय चक्र एवं मण्डल निर्मित हैं। इसका बङ्गाल में अधिक नृसिंहतापनीयोपनिषद् में सबसे पहले तन्त्र का लक्षण प्रचार है। देखने में आता है । इस उपनिषद् में मन्त्रराज नरसिंह- तन्त्रसारसंग्रह-यह मध्वाचार्य द्वारा प्रणीत ग्रन्थों में से अनुष्टुप् प्रसंग में तान्त्रिक महामन्त्र का स्पष्ट आभास एक है। सूचित हुआ है । शङ्कराचार्य ने भी जब उक्त उपनिषद् के तन्त्रामृत-'आगमतत्त्वविलास' में उल्लिखित तन्त्रसूची के भाष्य की रचना की है तब निस्सन्देह वह वि० की ८वीं अन्तर्गत यह तन्त्र ग्रन्थ है । शताब्दी से पहले की है । हिन्दुओं के अनुकरण से बौद्ध तन्त्रालोक-अभिनवगुप्त (कश्मीरी शैवों के एक आचार्य, तन्त्रों की रचना हुई है। वि० की १०वीं शताब्दी से ११वीं वि० शती) द्वारा लिखित 'तन्त्रालोक' शैवमत का १२वीं शताब्दी के भीतर बहुत से बौद्ध तन्त्रों का तिब्बतीय पूर्ण रूप से दार्शनिक वर्णन उपस्थित करता है। भाषा में अनुवाद हुआ था । ऐसी दशा में मूल बौद्ध तन्त्र तन्मात्रा-'पञ्च तत्त्वों' वाला सिद्धान्त सांख्यदर्शन में भी वि० की ८वीं शताब्दी के पहले और उनके आदर्श हिन्दू ग्रहण किया गया है । यहाँ तत्त्वों का विकास दो विभागों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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