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________________ २८८ झषकेतन-टुप्टोका दुर्मुखो नष्ट आत्मवान् विकटा कुचमण्डलः । कलहंसप्रिया वामा अङ्गलीमध्यपर्वकः ।। ट-व्यञ्जन वर्णों के टवर्ग का प्रथम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में दक्षहासादृहासश्च पाथात्मा व्यञ्जनः स्वरः ॥ इसके स्वरूप का वर्णन निम्नाङ्कित है : इसके ध्यान की विधि निम्नांकित है : .. टकारं चञ्चलापाङ्गि स्वयं परमकुण्डली । ध्यानमस्य प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने । कोटि विद्युल्लताकारं पञ्चदेवमयं सदा ॥ सन्तप्तहेमवर्णाभां रक्ताम्बरविभूषिताम् ।। पञ्चप्राणयुतं वर्ण गुणत्रयसमन्वितम् । रक्तचन्दनलिप्ताङ्गी रक्तमाल्यविभूषिताम् । त्रिशक्तिसहितं वर्ण त्रिबिन्दुसहितं सदा ॥ चतुर्दशभुजां देवीं रत्नहारोज्ज्वलां पराम् ॥ तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये है : ध्यात्वा ब्रह्मस्वरूपां तां तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।। टङ्कारश्च कपाली च सोमधा खेचरी ध्वनिः । झषकेतन-कामदेव का एक विरुद । इसका अर्थ है 'झष मुकुन्दो विनदा पृथ्वी वैष्णवी वारुणी नयः ।। (मकर अथवा मत्स्य) केतन (ध्वजा) है जिसका' । मकर दक्षाङ्गकार्द्धचन्द्रश्च जरा भूति पुनर्भवः । और मत्स्य दोनों ही काम के प्रतीक हैं। बृहस्पतिर्धनुश्चित्रा प्रमोदा विमला कटिः ।। झषाङ्क-दे० 'झषकेतन' । इसका अर्थ भी कन्दर्प अथवा काम- राजा गिरिमहाधनुर्माणात्मा सुमुखो मरुत् । देव है । हेमचन्द्र के अनुसार अनिरुद्ध का भी यह पर्याय है। टिप्पणी-किसी ग्रन्थ के ऊपर यत्र-तत्र विशेष सूचनिका झंसी (प्रतिष्ठानपुर)-प्रयाग से पूर्व गङ्गा के वाम तट जैसे उल्लेख को टिप्पणी' कहते हैं। पर यह एक तीर्थस्थल है। कहा जाता है कि यहाँ चन्द्र- 'महाभाष्य' की टीका उपटीकाएँ कैयट और नागेश ने वंशी राजा पुरूरवा की राजधानी थी। वर्तमान झूसी की लिखी हैं, उन पर आवश्यकतानुसार यत्र-तत्र 'वैद्यनाथ बगल में त्रिवेणीसंगम के सामने पुराना दुर्ग है, जो अब पायगुण्डे ने 'छाया' नामक टिप्पणी लिखी है। बहुत से कुछ टीला और गुफा मात्र रह गया है। वहीं 'समुद्रकूप' ऐसे धार्मिक और दार्शनिक ग्रन्थ हैं जिन पर भाष्य, टीका, नामक कुआँ है, जो बड़ा पवित्र माना जाना है। हो टिप्पणी आदि क्रमशः पाये जाते हैं। सकता है कि इसका सम्बन्ध गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त से टीका-ग्रन्थों के भाष्य अथवा विवरण लेखों को टीका भी हो। कहते हैं ( टीक्यते गम्यते प्रविश्यते ज्ञायते अनया इति )। वास्तव में 'टीका' ललाट में लगायी जानेवाली कुंकुम ज-व्यञ्जन वर्णों के चवर्ग का पञ्चम अक्षर । कामधेनु- आदि की रेखा को कहते हैं। इसी तरह प्राचीन हस्त तन्त्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है : लेखपत्र के केन्द्र या मध्यस्थल में मूल रचना लिखी सदा ईश्वरसंयुक्तं जकारं शृणु सुन्दरि । जाती थी और ऊर्ध्व भाग में ललाट के तिलक की तरह . रक्तविद्युल्लताकारं या स्वयं परकुण्डली ॥ मूल की व्याख्या लिखी जाती थी। मस्तकस्थ टीका के पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्च प्राणात्मकं सदा । सादृश्य से ही ग्रन्थव्याख्या को भी टीका कहा जाने त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा ।। लगा। ग्रन्थ के ऊर्ध्व भाग में टीका के न अमाने पर उसे तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं : पत्र के निचले भाग में भी लिख लिया जाता था। अकारो बोधनी विश्वा कुण्डली वियत् । टुप्टीका-पूर्वमीमांसा विषयक 'शबरभाष्य' पर अष्टम कौमारी नागविज्ञानी सव्याङ्गलं मखो वकः ।। शती वि० के उत्तरार्द्ध में कुमारिल भट्ट ने एक अनुभाष्य सर्वेशचूर्णिता बुद्धिः स्वर्गात्मा घर्घरध्वनिः । लिखा, जिसके तीन भाग हैं-(१) श्लोकवात्तिक (पद्यमय, धर्मेकपादः सुमुखो विरजा चन्दनेश्वरी ॥ अध्याय एक के प्रथम पाद पर) (२) तन्त्रवार्तिक (गद्य, गायनः पुष्पधन्वा च रागात्मा च वराक्षिणी ।। अध्याय एक के अवशेष तथा अध्याय दो व तीन पर) और एकाक्षरकोष में इसका अर्थ 'घर्घर ध्वनि' है। परन्तु (३) टुप्टीका (गद्य)। टुप्टीका अध्याय चार से बारह तक के मेदिनीकोष के अनुसार इसका अर्थ 'शुक्र' अथवा 'वाम- ऊपर संक्षिप्त टिप्पणी है। (पूर्वमीमांसा दर्शन कुल बारह गति' है। अध्यायों में है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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