SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८० वस्तुतः चिद्रूप ब्रह्मांश ही जगत् में जीवरूप धारण करता है । इसकी तीन अवस्थाएँ हैं - ( १ ) नित्यशुद्ध, जब वह ब्रह्मीभूत रहता है, (२) मुक्त, जब वह संसार में लिप्त होकर पुनः मुक्त होता है और (३) बढ, जब यह संसार में बद्ध होकर सुख-दुःख भोगता है । अद्वैत वेदान्त में सब कुछ एक ही है, जीवबहुत्व भ्रम मात्र है। ब्रह्म और जीव में तात्त्विक भेद नहीं है। सांख्य दर्शन पुरुष (जीव ) बहुत्व मानता है। उसके अनुसार प्रत्येक पुरुष का बन्ध और मोक्ष पृथक्-पृथक् होता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन भी जीवबहुत्व के सिद्धान्त को मानते हैं। निम्बार्क के मत से जीव अणु है, विभु नहीं है, मुक्ता वस्था में भी वह जीव ही है । जीव का नित्यत्व चिरस्थायी है। मुक्त जीव भी अणु है। मुक्त एवं बद्ध जीव में यही भेद है कि बद्धावस्था में जीव ब्रह्मस्वरूप की उपलब्धि नहीं कर सकता। वह दृदय जगत् के साथ एकात्मकता को प्राप्त किये रहता है। किन्तु मुक्तावस्था में जीव ब्रह्म के स्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है। वह अपने को और जगत् को ब्रह्ममय देखता है। चैतन्य के मतानुसार जीव अणु चेतन है । ईश्वर गुणी है, जीव गुण है। ईश्वर देही, जीव देह है । जीवात्मा बहु और नानावस्थापन है । ईश्वर की विमुखता ही उसके बन्धन का कारण है और ईश्वर के सम्मुख होने से उसके बन्धन कट जाते हैं और उसे स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। जीव नित्य है । ईश्वर, जीव, प्रकृति और काल ये चार पदार्थ नित्य हैं तथा जीव, प्रकृति और काल ईश्वर के अधीन है। जीव ईश्वर की शक्ति एवं ब्रह्म शक्तिमान् है । जीव (गोस्वामी ) – ये चैतन्यदेव के शिष्य रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी के छोटे भाई के पुत्र थे । इन्होंने ही वैष्णवमत का प्रचार करने के लिए श्रीनिवास आदि को ग्रन्थों के साथ वृन्दावन से वंगदेश में भेजा था। जीव के गुरु सनातन थे । रूप तथा सनातन दोनों का प्रभाव जीव पर पड़ा था। चैतन्यदेव के अन्तर्धान होने के बाद जीव वृन्दावन चले आये और यहीं पर उनकी प्रतिभा का विकास हुआ। जीव ने वृन्दावन में राधा दामोदर के मन्दिर की प्रतिष्ठा की। वे वहीं भगवान् में जीवन व्यतीत करने लगे । के भजन-पूजन Jain Education International जीव (गोस्वामी) - जुहू जीव ने रूप गोस्वामी कृत भक्तिरसामृतसिन्धु की टीका, 'क्रमसन्दर्भ' के नाम से भागवत की टोका, 'षट्सन्दर्भ', 'भक्तिसिद्धान्त', 'गोपालचम्पू' और 'उपदेशामृत' नामक ग्रन्थों की रचना की। जीव गोस्वामी ने अपने सब ग्रन्थ अचिन्त्यभेदाभेद मत के अनुसार लिखे हैं। जीव गोस्वामी अठारहवीं शती वि० के मध्य से उसके अन्त तक जीवित थे। 'चैतन्यचरितामृत' के रचयिता कृष्णदास कविराज पर इनका बड़ा प्रभाव था । जीववशा सत्रहवीं शती वि० के उत्तरार्ध में राधावल्लभ सम्प्रदाय के एक आचार्य और कवि ध्रुवदास द्वारा रचित यह एक ग्रन्थ है । पुत्र जीवत्पुत्रिका - आश्विन कृष्ण अष्टमी को उन स्त्रियों का यह निरम्बु प्रत होता है, जिनके पुत्र जीवित हों या जो के होने और जीते रहने की अभिलाषिणी हों । दे० 'जीवत्पुत्रिकाष्टमी' । जीवत्पुत्रिकाष्टमी आश्विन कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का - अनुष्ठान होता है । इसमें महिलाओं को अपने सौभाग्य (पत्नीत्व) तथा संतान के लिए शालिवाहन के पुत्र जीमूतवाहन की पूजा करनी चाहिए। जीवन्तिका व्रत कार्तिकी अमावस्या के दिन दीवार पर जीवन्तिका देवी की प्रतिमा अङ्कित करके पूजा करनी चाहिए । यह व्रत विशेष रूप से महिलाओं के लिए है । जीवन्मुक्त शरीर के रहते हुए ही मोक्ष का अनुभव करनेवाला | जिसको तत्त्व का साक्षात्कार तो हो गया हो परन्तु प्रारब्ध कर्म का भोग शेष हो वह जीवन्मुक्त है। सचित और क्रियमाण कर्म उसके लिए बन्धन नहीं उत्पन्न करते । जीवन्मुक्त की दो अवस्थाएँ होती हैं -- ( १ ) समाधि और (२) उत्थान समाधि अवस्था में वह ब्रह्मलीन रहता है और शरीर को शववत् समझता है । उत्थान अवस्था में वह सभी व्यावहारिक कार्यों को अनासक्तभाव से करता है । जीवन्मुक्तिविवेक सुरेश्वराचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ इसमें ज्ञानियों की जीवित अवस्था के रहने पर भी उनकी मोक्ष की अवस्था का स्वरूप बतलाया गया है । - - For Private & Personal Use Only ---- जुहू - एक यज्ञपात्र । ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में यह शब्द 'बड़े चमचे' के अर्थ में व्यवहृत हुआ है, जिससे देवों के लिए यज्ञ में घृत दिया जाता है । www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy