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________________ २७८ जलकृच्छवत-जानकीकुण्ड करने वाला माना जाता है। इसलिए प्रत्येक धार्मिक कृत्य जाति-इसका मूल अर्थ है जन्म अथवा उत्पत्ति को समामें स्नान, अभिषेक अथवा आचमन के रूप में इसका उप- नता । कहीं-कहीं प्रजाति, परिवार अथवा वंश के लिए योग होता है। भी इसका प्रयोग होता है। हिन्दुओं की यह एक विशेष जलकृच्छ व्रत-कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को इस कृच्छू व्रत का संस्था है, जो वर्णव्यवस्था (समाज के चार वर्गों में विभाअनुष्ठान करना चाहिए। इसमें विष्णु पूजन का विधान जन) से भिन्न है। इसके आधार जन्म और व्यवसाय हैं है। जल में रहते हुए उपवास करना चाहिए । इससे विष्णु तथा समान भोजन, विवाह आदि प्रथाएँ हैं; जब कि वर्ण लोक की प्राप्ति होती है। का आधार प्रकृति के आधार पर कर्तव्य का चुनाव और तदनुकूल वृत्ति (शील और आचार) है। प्रत्येक जाति का जल जातूकl-जातूकर्ण्य के वंशज । इनका शांखायन श्रौत्र आचार परम्परा से निश्चित है जिसको धर्मशास्त्र और सूत्र (१६.२९.७) में काशी, विदेह एवं कोसल के राजाओं विधि मान्यता देते हैं । तीन प्रकार के आचारों-देशाचार, के पुरोहित अथवा गृहपुरोहित के रूप में उल्लेख हुआ है। जात्याचार तथा कुलाचार में से एक जात्याचार भी है। जहका-यह यजुर्वेद में अश्वमेध के एक बलिपशु के रूप महाभारत में 'जाति' शब्द का प्रयोग मनुष्य मात्र के में उद्धृत किया गया है । सायण ने इसे 'बिलवासी क्रोष्टा' अर्थ में किया गया है। नहुषोपाख्यान में युधिष्ठिर का बिल में रहने वाला शृगाल कहा है। . कथन है : जाग्रगौरीपञ्चमी-श्रावण शुक्ल पञ्चमी को इस व्रत का जातिरत्र महासर्प मनुष्यत्वे महामते । अनुष्ठान होता है। इससे सर्पभय दूर होता है। इसमें संकरत्वात् सर्ववर्णानां दुष्पपरीक्ष्येति मे मतिः॥ रात्रिजागरण का विधान है । गौरी इसकी देवता हैं। सर्वे सर्वास्वपत्यानि जनयन्ति सदा नराः । जातकर्म-गृह्य संस्कारों में से एक संस्कार । यह जन्म के तस्माच्छीलं प्रधानेष्टं विदुयें तत्त्वदर्शिनः ॥ समय नाल काटने के पहले सम्पन्न होना चाहिए। इसमें [हे महामति सर्प (यक्ष = नहुष) ! 'जाति' का प्रयोग रहस्यमय मन्त्र पढ़े जाते हैं तथा शिशु को मधु और मक्खन यहाँ मनुष्यत्व मात्र में किया गया है । सभी वर्गों (जातियों) चटाया जाता है । इसके तीन प्रमुख अङ्ग हैं : प्रज्ञाजनन का इतना संकर (मिश्रण) हो चुका है कि किसी व्यक्ति की (बुद्धि को जागृत करना), आयुष्य (दीर्घ आयु के लिए (मूल) जाति की परीक्षा कठिन है । सभी जातियों के पुरुष प्रार्थना) और शक्ति के लिए कामना । यह संस्कार शिशु सभी ( जाति की ) स्त्रियों से सन्तान उत्पन्न करते आये का पिता ही करता है । वह शिशु को सम्बोधित करते हुए हैं। इसीलिए तत्त्वदर्शी पुरुषों ने शील को ही प्रधान माना कहता है: है (जाति को नहीं)।] जातित्रिरात्रवत-ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी से तीन दिन तक इस अङ्गाद् अङ्गात् संभवसि हृदयादधिजायसे । व्रत का अनुष्ठान होता है। द्वादशी को एकभक्त (एक आत्मा वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम् ।। समय भोजन) रहना चाहिए । त्रयोदशी के बाद तीन दिन [अङ्ग-अङ्ग से तुम्हारा जन्म हुआ है, हृदय से तुम उपवास का विधान है । ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजी की उत्पन्न हो रहे हो । पुत्र नाम से तुम मेरे ही आत्मा हो । गणों सहित भिन्न-भिन्न पुष्पों तथा फलों से पूजा करनी सौ वर्ष तक जीवित रहो।] फिर शिशु की शक्ति वृद्धि चाहिए । यव, तिल तथा अक्षतों से होम करना चाहिए। के लिए कामना करता है : सती अनसूया ने इसका आचरण किया था, अतएव तीनों अश्मा भव, परशुर्भव, हिरण्यमस्रुतं भव । देवताओं ने शिशु रूप से उनके यहाँ जन्म लिया ।। पत्थर के समान दृढ हो, परशु के समान शत्रुओं के जातकर्ण्य-शक्ल यजुर्वेद का प्रातिशाख्य सूत्र और उसकी लिए ध्वंसक बनो, शुद्ध सोने के समान पवित्र रहो।] अनुक्रमणी भी कात्यायन के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस जातरूप--जाति के सौन्दर्य को रखनेवाला, स्वर्ण का एक प्रातिशाख्य में अनेक आचार्यों के नामों के साथ जातकर्य नाम, जिसका उल्लेख परवर्ती ब्राह्मणों एवं सूत्रों में हुआ . का भी नामोल्लेख हुआ है। है । धार्मिक क्रियाओं में इसका प्रायः उपयोग होता है। जानकीकुण्ड-चित्रकूट में कामदगिरि की परिक्रमा में पयबहुमूल्य होने के साथ यह पवित्र धातु भी है। स्विनी नदी के बायें तट पर पहले प्रमोदवन मिलता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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