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________________ घेरण्ड ऋषि-चक्रधर २५७ ङ कारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डली । सर्वदेवमयं वर्ण त्रिगुणं लोललोचने ॥ पञ्चप्राणमयं वर्ण ङकारं प्रणमाम्यहम् । तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम पाये जाते हैं, यथा ङ. शक्तो भैरवश्चण्डो विन्दुत्तंसः शिशुप्रियः । एकरुद्रो दक्षनखः खर्परो विषयस्पृहा ।। कान्तिः श्वेताह्वयो धीरो द्विजात्मा ज्वालिनी वियत् । मन्त्रशक्तिश्च मदनो विघ्नेशो चात्मनायकः ।। एकनेत्रो महानन्दो दुर्द्धरश्चन्द्रमा यतिः । शिवयोषा नीलकण्ठः कामेशीच मयाशुको ॥ वर्णोद्धारतन्त्र में इसके ध्यान की विधि निम्नलिखित है: धूम्रवर्णां महाघोरां ललज्जिह्वां चतुर्भजाम् । पीताम्बरपरीधानां साधकाभीष्टसिद्धिदाम् ।। एवं ध्यात्वा ब्रह्मरूपां तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।। घेरण्ड ऋषि-धेरण्ड ऋषि की लिखी 'धेरण्डसंहिता' प्राचीन ग्रन्थ है। यह हठयोग पर लिखा गया है तथा परम्परा से इसकी शिक्षा बराबर होती आयी है । नाथपंथियों ने उसी प्राचीन सात्त्विक योग प्रणाली का प्रचार किया है, जिसका विवेचन 'घेरण्डसंहिता' में हुआ है। घेरण्डसंहिता-दे० 'घेरण्ड ऋषि' । घोटकपञ्चमी-आश्विन कृष्ण पञ्चमी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। यह व्रत राजाओं के लिए निर्धारित है जो अश्वों की अभिवृद्धि अथवा सुस्वास्थ्य के लिए अनुष्ठित होता है । यह एक प्रकार का शान्तिकर्म है। घोर आङ्गिरस्-एक पुराकथित आचार्य का नाम, जो कौषीतकि ब्राह्मण एवं छान्दोग्य उपनिषद् में उल्लिखित हैं । इनको कृष्ण (देवकीपुत्र) का शिक्षक कहा गया है । यह आंशिक नाम है, क्योंकि आंगिरसों के घोरवंशज 'भिषक् अथर्वा' भी कहे गये हैं। ऋग्वेदीय सूक्तों में 'अथर्वाणो वेदाः' का सम्बन्ध 'भेषजम्' एवं 'आंगिरसो वेदाः' का 'घोरम्' के साथ है। अतएव घोर आङ्गिरस् अथर्ववेदी कर्मकाण्ड के कृष्णपक्षपाती लगते हैं। इनका उल्लेख काठक संहिता के अश्वमेधखण्ड में भी हुआ है। घोषा-ऋग्वेद की महिला ऋषि । वहाँ दो मन्त्रों में घोषा को अश्विनों द्वारा संरक्षित कहा गया है । सायण के मतानुसार उसका पुत्र सुहस्त्य ऋग्वेद के एक अस्पष्ट मन्त्र में उधत है । ओल्डेनवर्ग यहाँ घोषा का ही प्रसंग पाते हैं, किन्तु पिशेल घोषा को संज्ञा न मानकर क्रियाबोधक मानते हैं। अश्विनों की स्तुति में कहा गया है कि उन्होंने वृद्धा कुमारी घोषा को एक पति दिया। ऋग्वेद (१०.३९.४०) की ऋचा घोषा नाम्नी ऋषि (स्त्री) की रची कही गयी है । कथा यों है कि घोषा कक्षीवान की कन्या थी । कुष्ठ रोग से ग्रस्त होने के कारण बहुत दिनों तक वह अविवाहित रही। अश्विनों (देवताओं के वैद्यों) ने उसको स्वास्थ्य, सौन्दर्य और यौवन प्रदान किया, जिससे वह पति प्राप्त कर सकी। चक्र-(१) विष्णु के चार आयुधों-शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म में से एक आयुध । यह उनका मुख्य अस्त्र है । इसका नाम सुदर्शन है । चक्रनेमि (पहिया का घेरा) के मूल अर्थ में यह अव गति अथवा प्रगति का प्रतीक है। दर्शन में भवचक्र अथवा जन्ममरणचक्र के प्रतीक के रूप में भी इसका प्रयोग होता है। (२) शाक्तमत में देवी की चार प्रकार की आराधना होती है। प्रथम मन्दिर में देवी की जनपूजा, द्वितीय में चक्रपूजा, तृतीय में साधना एवं चतुर्थ में अभिचार (जादू) द्वारा, जैसा कि तन्त्रों में बताया गया है। चक्रपूजा एक महत्त्वपूर्ण तान्त्रिक साधना है । इसे आजकल वामाचार कहते हैं। बराबर संख्या के पुरुष एवं स्त्रियाँ जो किसी भी जाति के हों अथवा समीपी सम्बन्धी हों, यथा पति पत्नी, माँ, बहिन, भाई-एक गुप्त स्थान में मिलते तथा वृत्ताकार बैठते हैं । देवी की प्रतिमा या यन्त्र सामने रखा जाता है एवं पञ्चमकार-मदिरा, मांस, मत्स्य, मुद्रा एवं मैथुन का सेवन होता है । चक्रधर-(१) विष्णु का एक पर्याय है। वे चक्र धारण करते हैं, अतः उनका यह नाम यड़ा। (२) एक सन्त का नाम । इनका जीवनकाल तेरहवीं शती का मध्य है। ये ही मानभाऊ सम्प्रदाय के संस्थापक थे । इनके अनुयायी यादवराजा रामचन्द्र (१२७१ F-व्यञ्जन वर्णों के कवर्ग का पञ्चम अक्षर । तान्त्रिक विनियोग के लिए कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है: ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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