SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२९ गभिणीधर्म-गवायुर्वेद है (आश्वलायनस्मृति)। एक आथर्वणिक श्रुति में निषेध का यह कारण दिया हुआ है : नातवे दिवा मैथनमर्जयेत् । अल्पभाग्या अल्पवीर्याश्च दिवा प्रसूयन्तेऽल्पायुषश्च । [ऋतुकाल और दिन में स्त्रीसंग नहीं करना चाहिए। इससे अल्पभाग्य, अल्पवीर्य और अल्पायु बालक उत्पन्न होते हैं । गर्भाधान की रात्रिसंख्या के अनुसार सन्तति का लिङ्ग निश्चित माना जाता है (मनुस्मृति, २.४८)। परन्तु मनुस्मृति (३.४९) के अनुसार सन्तति के लिङ्ग में माता- पिता के रक्त-वीर्य का आधिक्य भी कारण होता है । मास की तिथियों में ८,१४,१५,३० और सम्पूर्ण पर्व गर्भाधान के लिए निषिद्ध है । गर्भाधान संस्कार पति ही कर सकता है। प्राचीन काल में पति के अभाव अथवा असमर्थता में देवर अथवा नियोगप्रथा के अनुसार कोई नियुक्त व्यक्ति भी ऐसा कर सकता था (दे० 'नियोग')। परन्तु कलियुग में नियोग वजित है। गर्भाधान तभी तक अनिवार्य है जब तक पुत्र न उत्पन्न हो; इसके पश्चात् गर्भाधान में विकल्प है : ऋतुकालाभिगामी स्याद्यावत्पुत्रोऽभिजायते । ज्येष्ठेन जातमात्रेण पुत्री भवति मानवः । पितृणामनृणश्चैव स तस्मात्सर्वमर्हति ।। निश्चित मांगलिक धर्मकृत्य के पश्चात् पति द्वारा पत्नी का आलिङ्गन करके निम्नलिखित मन्त्रों से गर्भाधान करने का विधान है : अहमस्मि सा त्वं द्यौरहं पृथ्वी त्वं रेतोऽहं रेतोभृत् त्वम् । (बौ० गृ० सू०१.७.१-१८) (यह मैं हूँ। वह तुम हो । मैं आकाश हूँ। तुम पृथ्वी हो । मैं रेतस् हूँ। तुम रेतस् को धारण करने वाली हो ।] तां पूषन् शिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्या वपन्ति । या न ऊरू उशती विशु याति यस्यामुशन्तः प्रहराम शेपम् ।। (ऋग्वेद, १०.८५.३७) गभिणीधर्म-धर्मशास्त्र में गर्भिणी स्त्री के विशेष धर्म का विधान किया गया है। पद्मपुराण (५.७.४१-४७) तथा मत्स्यपुराण में कश्यप तथा अदिति के संवादरूप में गभिणी के निम्नांकित कर्तव्य बतलाये गये हैं : गर्भिणी कुञ्जराश्वादि-शैल-हादिरोहणम् । व्यायाम शीघ्रगमनं शकटारोहणं त्यजेत् ।। शोकं रक्तविमोक्षञ्च साध्वसं कुक्कुटासनम् । व्यवायञ्च दिवास्वप्नं रात्रौ जागरणं त्यजेत् ॥ [गर्भिणी को हाथी, घोड़े, पर्वत, अट्टालिका आदि पर चढ़ना, व्यायाम, शीघ्रगमन, बैलगाडी-रोहण का त्याग करना चाहिए। इसी प्रकार शोक, रक्तोत्सर्ग, शीघ्रता से कुक्कुटासन से बैठना, अधिक श्रम, दिन में सोना, रात्रि में जागरण आदि का त्याग करना चाहिए।] __ स्कन्दपुराण ( मदनरत्न में उद्धृत ) के अनुसार : हरिद्रां कुङ्कुमञ्चैव सिन्दूरं कज्जलं तथा । कूर्पासकञ्च ताम्बूलं माङ्गल्याभरणं शुभम् ॥ केश संस्कारकवरीकरकर्ण विभूषणम् । भर्तुरायुष्यमिच्छन्ती वर्जयेद् गर्भिणी नहि ॥ [हल्दी, कुंकुम, सिन्दूर, काजल, कूर्पास, पान, सुहागवस्तु, आभूषण, वेणी-केशसंस्कार को पति की मंगलकामना के लिए पत्नी अवश्य धारण करे । ] गर्भिणीधर्म के साथ-साथ गर्भिणीपति के धर्म का भी विधान पाया जाता है : वपनं मैथुनं तीर्थं वर्जयेद् गर्भिणीपतिः । श्राद्धञ्च सप्तमान्मासादूर्ध्वं चान्यत्र वेदवित् ॥ क्षौरं शवानुगमनं नखकृन्तनञ्च युद्धं च वास्तुकरणं त्वतिदूरयानम् । उद्वाहमम्बुधिजलं स्पृशनोपयोगम् आयुःक्षयो भवति भिणिकापतीनाम् ।। (कलिविधान) | मण्डन, संभोग, यात्रा, श्राद्धकर्म गर्भ के सातवें महीने से न करना चाहिए। क्षौर, श्मशान जाना, नख केश काटना, युद्ध, निर्माण, दूरयात्रा, विवाह, समुद्रयात्रा-इन्हें भी नहीं करना श्रेयस्कर है। गवाक्षतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में उल्लिखित चौसठ तन्त्रों की सूची में 'गवाक्षतन्त्र' का ४६वां स्थान है। गवायुर्वेद-आयुर्वेद के कई विभागों में गवायुर्वेद भी एक है। यह गायों की चिकित्सा के सम्बन्ध में है। गाय का आधार लेकर प्रायः सभी पालतू पशुओं की चिकित्सा का विज्ञान इस शास्त्र में प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy