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________________ अग्नितीर्थ-अग्निपुराण आत्मना प्रेरितं चित्तं वह्निमाहन्ति देहजम् । पक्षियों के भोज्यार्थ फेंक दिया जाता था तथा दूसरे के लिए ब्रह्मग्रन्थिस्थितं प्राणं स प्रेरयति पावकः ॥ उसका कथन है कि वृद्ध व्यक्ति असहाय होने पर वैसे ही पावकप्रेरितः सोऽथ क्रमादूर्ध्वपथे चरन् । छोड़ दिये जाते थे। किन्तु दूसरे के लिए ह्विटने का मत अतिसूक्ष्मध्वनि नाभौ हृदि सूक्ष्मं गले पुनः ॥ है कि मृतक को किसी प्रकार के चबूतरे पर छोड़ दिया पुष्टं शीर्षे त्वपुष्टञ्च कृत्रिमं बदने तथा । जाता था। आविर्भावयतीत्येवं पञ्चधा कीर्त्यते बुधः ।। __ ऋग्वेद-काल में शव को भूगर्भ में गाड़ने की भी प्रथा नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विदुः । थी । एक पूरे मन्त्र में इसकी विधि का वर्णन है। अग्नि जातः प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते ।। दाह का भी समान रूप से प्रचार था। यह प्रणाली दिनों[आत्मा के द्वारा प्रेरित चित्त देह में उत्पन्न अग्नि को दिन बढ़ती ही गयी। छान्दोग्य उपनिषद् में मृतक के आहत करता है । ब्रह्मग्रन्थि में स्थित प्राणवायु को वह शरीर की सजावट के उपादान आमिक्षा (दही), वस्त्र एवं अग्नि प्रेरित करता है। अग्नि के द्वारा प्रेरित वह प्राण आभूषण को, जो पूर्ववर्ती काल में स्वर्ग प्राप्ति के साधन क्रम से ऊपर चलता हुआ नाभि में अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि समझे जाते थे, व्यर्थ बतलाया गया है । वाजसनेयी संहिता करता है तथा गले और हृदय में भी सूक्ष्म ध्वनि करता में दाह क्रिया के मन्त्रों में केवल अग्निदाह को प्रधानता दी है। सिर में पुष्ट और अपुष्ट तथा मुख में कृत्रिम गयी है एवं शव की राख को श्मशान भूमि में गाड़ने को प्रकाश करता है । विद्वानों ने पाँच प्रकार का अग्नि कहा गया है । ऋग्वेद में मृतक शरीर पर घी लेपने एवं बताया है । नकार प्राण का नाम है, दकार अग्नि का नाम मृतक के साथ एक छाग (बकरे) को जलाने का वर्णन है, है । प्राण और अग्नि के संयोग से नाद की उत्पत्ति जो दूसरे लोक का पथप्रदर्शक समझा जाता था । अथर्वहोती है।] वेद में एक बोझ ढोने वाले बैल के जलाने का वर्णन है, जो सब देवताओं में इसका प्रथम आराध्यत्व ऋग्वेद के । दूसरे लोक में सवारी के काम आ सके। यह आशा की सर्वप्रथम मन्त्र “अग्निमीले पुरोहितम्" से प्रकट जाती थी कि मृतक अपने सम्पूर्ण शरीर, सभी अङ्गों से होता है। युक्त (सर्वतनुसङ्ग) पुनर्जन्म ग्रहण करेगा, यद्यपि यह भी (२) योगाग्नि अथवा ज्ञानाग्नि के रूप में भी 'अग्नि' कहा गया है कि आँख सूर्य में, श्वास पवन में चले जाते का प्रयोग होता है । गीता में कथन है : हैं । गाड़ने या जलाने के पूर्व शव को नहलाया जाता था 'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।' तथा पैर में कूडी बाँध दी जाती थी ताकि मृतक फिर 'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥' लौटकर पृथ्वी पर न आ जाय । अग्नितीर्थ-श्री बदरीनाथ मन्दिर के सिंहद्वार से ४-५ अग्निपुराण--विष्णुपुराण में पुराणों की जो सूची पायी सीढ़ी उतरकर शङ्कराचार्य मन्दिर है। इसमें लिङ्गमति जाती है उसमें अग्निपुराण आठवाँ है । अग्नि की महिमा है। उससे ३-४ सीढ़ी नीचे आदि केदार का मन्दिर है। का इसमें विशेष रूप से वर्णन है, और अग्नि ही इसके केदारनाथ से नीचे तप्तकुण्ड है। उसे 'अग्नितीर्थ' कहा वक्ता हैं । अतः इसका नाम अग्निपुराण पड़ा। इसमें सब जाता है। मिलाकर ३८३ अध्याय हैं। अठारह विद्याओं का इसमें अग्निदग्ध-अग्नि से जला हुआ। यह संज्ञा उनकी है जो संक्षेप रूप से वर्णन है। रामायण, महाभारत, हरिवंश मृतक चिता पर जलाये जाते हैं। साधारणतः शव की आदि ग्रन्थों का सार इसमें संगृहीत है। इसमें वेदाङ्ग विसर्जन क्रिया में मृतकों के दो प्रकार थे, पहला अग्निदग्ध, (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष) दूसरा अनग्निदग्ध (जो अग्नि में न जलाया गया हो)। तथा उपवेदों (अर्थशास्त्र, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा आयुअथर्ववेद दो और प्रकार प्रस्तुत करता है, यथा (१) परोप्त र्वेद) का वर्णन भी पाया जाता है। दर्शनों के विषय भी (फेंका हुआ) तथा (२) उद्धृत (लटकाया हुआ)। इनका इसमें विवेचित हुए हैं। काव्यशास्त्र का भी समावेश है। ठीक अर्थ बोधगम्य नहीं है। जिमर प्रथम का अर्थ उस कौमार-व्याकरण, एकाक्षर कोश तथा नामलिङ्गानुशासन ईरानी प्रणाली के सदृश बतलाता है, जिसमें शव को पशु- भी इसमें समाविष्ट है । पुराण के पञ्चलक्षणों (सर्ग, प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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