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________________ अगस्त्यदर्शन-पूजन-अग्नि सर्प बनाना था । नहुष इन्द्र का पद प्राप्त करके शची को ग्रहण करना चाहता था। शची की शर्त पूरी करने के लिए वह सात ऋषियों द्वारा ढोयी जाने वाली पालकी पर बैठ शची के पास जा रहा था । उसने रास्ते में अगस्त्य के सिर पर पैर रख दिया और शीघ्रता से चलने के लिए 'सर्प-सर्प' कहा । इस पर ऋषियों ने उसे 'सर्प' हो जाने का उस समय तक के लिए शाप दिया, जब तक युधिष्ठिर उसका उद्धार न करें। महाभारत का नहुषोपा- ख्यान इसी पुराकथा के आधार पर लिखा गया है। के आधार पर लिखा गया है। संस्कृत ग्रन्थों में अगस्त्य का नाम विन्ध्य पर्वत-माला की असामान्य वृद्धि को रोकने एवं महासागर को पी जाने के सम्बन्ध में लिया जाता है। ये दक्षिणावर्त में आर्य संस्कृति के प्रथम प्रचारक थे । शरीर-त्याग के बाद अगस्त्य को आकाश के दक्षिणी भाग में एक अत्यन्त प्रकाशमान तारे के रूप में प्रतिष्ठित किया गया । इस नक्षत्र का उदय सूर्य के हस्त नक्षत्र में आने पर होता है, जब वर्षा ऋतु समाप्ति पर होती है । इस प्रकार अगस्त्य प्रकृति के उस रूप का प्रतिनिधित्व करते है जो मानसून का अन्त करता है एवं विश्वास की भाषा में महासागर का जल पीता है (जो फिर से उस चमकीले सूर्य को लाता है, जो वर्षा काल में बादलों से छिप जाता है और पौराणिक भाषा में विन्ध्य को असामान्य वृद्धि को रोककर सूर्य को मार्ग प्रदान करता है)। दक्षिण भारत में अगस्त्य का सम्मान विज्ञान एवं साहित्य के सर्वप्रथम उपदेशक के रूप में होता है। वे । अनेक प्रसिद्ध तमिल ग्रन्थों के रचयिता कहे जाते हैं। प्रथम तमिल व्याकरण की रचना अगस्त्य ने ही की थी। वहाँ उन्हें अब भी जीवित माना जाता है जो साधारण आँखों से नहीं दीखते तथा त्रावनकोर की सुन्दर अगस्त्य पहाड़ी पर वास करते माने जाते है, जहाँ से तिन्नेवेली की पवित्र पोरुनेई अथवा ताम्रपर्णी नदी का उद्भव होता है। हेमचन्द्र के अनुसार उनके पर्याय है (१) कुम्भसम्भव, (२) मित्रावरुणि, (३) अगस्ति, (४) पीताब्धि, (५) वातापिद्वि ट्, (६) आग्नेय, (७) और्वशेय, (८) आग्निमारुते, (९) घटोद्भव। अगस्त्यदर्शन-पूजन-सूर्य जब राशि-चक्र के मध्य में अवस्थित होता है उस समय अगस्त्य. तारे को देखने के पश्चात् रात्रि में उसका पूजन होता है। (नीलमत पु०, श्लोक ९३४ से ९३९ ।) अगस्त्यायदान-इस व्रत में अगस्त्य को अर्घ्य प्रदान किया जाता है। दे० मत्स्य पु०, अ० ६१; अगस्त्योत्पत्ति के लिए दे० ग० पु०, भाग १; ११९, १-६। भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अगस्त्य तारा भिन्न-भिन्न कालों में उदय होता है। सूर्य के कन्या राशि में प्रवेश करने से तीन दिन और बीस घटी पूर्व अर्ध्य प्रदान किया जाना चाहिए । दे० भोज का राजमार्तण्ड । अग्नायी-अग्नि की पत्नी का एक नाम, परन्तु यह प्रसिद्ध नहीं है। अग्नि--(१) हिन्द देवमण्डल का प्राचीनतम सदस्य, वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य रूप है(१) व्योम में सूर्य, (२) अन्तरिक्ष (मध्याकाश) में विद्युत् और (३) पृथ्वी पर साधारण अग्नि । ऋग्वेद में सबसे अधिक सूक्त अग्नि की स्तुति में ही अर्पित किये गये हैं । अग्नि के आदिम रूप संसार के प्रायः सभी धर्मों में पाये जाते हैं । वह 'गृहपति' है और परिवार के सभी सदस्यों से उसका स्नेहपूर्ण धनिष्ठ सम्बन्ध है (ऋ०, २. १. ९; ७. १५. १२; १. १. ९; ४. १. ९; ३. १. ७)। वह अन्धकार, निशाचर, जादू-टोना, राक्षस और रोगों को दूर करने वाला है (ऋ०, ३. ५.१; १. ९४. ५, ८. ४३. ३२; १०. ८८.२)। अग्नि का यज्ञीय स्वरूप मानव सभ्यता के विकास का लम्बा चरण है। पाचन और शक्ति-निर्माण की कल्पना इसमें निहित है। यज्ञीय अग्नि वेदिका में निवास करता है (ऋ० १.१४०. १)। वह समिधा, घृत और सोम से शक्तिमान होता है (ऋ० ३. ५.१०; १. ९४. १४); वह मानवों और देवों के बीच मध्यस्थ और सन्देशवाहक है (ऋ० ०१. २६.९; १.९४. ३; १. ५९.३; १. ५९.१; ७. २. १; १. ५८. १; ७. २. ५; १. २७. ४; ३. १. १७; १०.२.१; १. १२. ४ आदि) । अग्नि की दिव्य उत्पत्ति का वर्णन भी वेदों में विस्तार से पाया जाता है (ऋ० ३. ९.५, ६. ८. ४)। अग्नि दिव्य पुरोहित है (ऋ० २. १. २; १. १. १; १. ९४. ६)। वह देवताओं का पौरोहित्य करता है। वह यज्ञों का राजा है (राजा त्वमध्वराणाम्; ऋ० वे० ३.१. १८; ७. ११.४, २.८. ३; ८. ४३. २४ आदि)। नैतिक तत्त्वों से भी अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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