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________________ काशी ने यहाँ दस अश्वमेध यज्ञ किये, उसका नाम दशाश्वमेध पड़ गया। मणिकर्णिका ( मुक्तिक्षेत्र) काशी का सर्वाधिक पवित्र तीर्थ तथा वाराणसी के धार्मिक जीवनक्रम का केन्द्र है । इसके आरम्भ के सम्बन्ध में एक रोचक कथा है : विष्णु ने अपने चिन्तन से यहाँ एक पुष्करिणी का निर्माण किया और लगभग पचास हजार वर्षों तक वे यहाँ घोर तपस्या करते रहे। इससे शङ्कर प्रसन्न हुए और उन्होंने विष्णु के सिर को स्पर्श किया और उनका एक मणिजटित कर्णभूषण सेतु के नीचे जल में गिर पड़ा। तभी से इस स्थल को 'मणिकर्णिका' कहा जाने लगा । काशीखण्ड के अनुसार निधन के समय यहाँ सज्जन पुरुषों के कान में भगवान् शङ्कर 'तारक मन्त्र' फेंकते हैं । इसलिए यहाँ स्थित शिवमन्दिर का नाम 'तारकेश्वर' है । यहाँ पञ्चगङ्गा घाट भी है। इसे पञ्चगङ्गा पाट इस लिए कहा जाता है कि पुराणों के अनुसार यहाँ किरणा, धूतपापा, गङ्गा, यमुना तथा सरस्वती का पवित्र सम्मेलन हुआ है, यद्यपि इनमें से प्रथम दो अब अदृश्य हैं। काशीखण्ड (५९.११८-१३३) के अनुसार जो व्यक्ति इस पञ्चनदसंगम स्थल पर स्नान करता है वह इस पाञ्चभौतिक पदार्थों से युक्त मर्त्यलोक में पुनः नहीं आता। यह पाँच नदियों का संगम विभिन्न युगों में विभिन्न नामों से अभिहित किया गया था । सत्ययुग में धर्ममय, त्रेता से धूतपातक, द्वापर में बिन्दुतीर्थ तथा कलियुग में इसका नाम 'पञ्चनद' पड़ा है। काशी में तीर्थयात्री के लिए पञ्चकोशी की यात्रा बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य है पञ्चकोशी मार्ग की लम्बाई लगभग ५० मील है और इस मार्ग पर सैकड़ों मन्दिर है। मणिकर्णिका केन्द्र से यात्री वाराणसी की अवृत्ताकार में परिक्रमा करता है जिसका अर्द्धव्यास पंचक्रोश है, इसीलिए इसे 'पंचक्रोशी' कहते हैं ( काशीखण्ड, अध्याय २६, श्लोक ८० और ११४ तथा अध्याय ५५ - ४४ ) । इसके अनुसार यात्री मणिकणिका घाट से गंगा के किनारे किनारे चलना आरम्भ करके अस्सीघाट के पास मणिकणिका से ६ मील दूर खाण्डव ( कंदवा ) नामक गाँव में रुकता है वहाँ से दूसरे दिन धूपचण्डी के लिए (१० मील) प्रस्थान करता है । वहाँ धूपचण्डी देवी का मन्दिर है । तीसरे दिन वह १४ मील की यात्रा पर रामेश्वर २४ Jain Education International १८५ नामक गाँव के लिए प्रस्थान करता है। चौथे दिन वहाँ से ८ मील दूर शिवपुर पहुँचता है और पाँचवें दिन वहाँ से ६ मील दूर कपिलधारा जाता है और वहाँ पितरों का श्राद्ध करता है। छठे दिन वह कपिलधारा से वरणासंगम होते हुए लगभग ६ मील की यात्रा करके मणिकर्णिका आ जाता है। कपिलधारा से मणिकर्णिका तक यह य (देवास) बिखेरता हुआ आता है तदुपरान्त वह गङ्गास्नान करके पुरोहितों को दक्षिणा देता है। फिर साक्षीविनायक के मन्दिर में जाकर अपनी पञ्चक्रोशी यात्रा की पूर्ति की साक्षी देता है । इसके अतिरिक्त काशी के कुछ अन्य तीर्थ भी प्रमुख हैं । इनमें ज्ञानवापी का नाम उल्लेखनीय है । यहाँ भगवान् शिव ने शीतल जल में स्नान करके यह वर दिया था कि यह तीर्थ अन्य तीर्थों से उच्चतर कोटि का होगा । इसके अतिरिक्त दुर्गाकुण्ड पर एक विशाल दुर्गामन्दिर भी है। काशीखण्ड (श्लोक ३७, ६५) में इससे सम्बद्ध दुर्गास्तोत्र का भी उल्लेख है । विश्वेश्वरमन्दिर से एक मील उत्तर भैरवनाथ का मन्दिर है । इनको काशी का कोतवाल कहा गया है। इनका वाहन कुत्ता है। साथ ही गणेशजी के मन्दिर तो काशी में अनन्त हैं । त्रिस्थली सेतु ( पृ० ९८ - १०० ) से यह पता चलता है कि काशी में प्रवेश करने मात्र से ही इस जीवन के पापों का क्षय हो जाता है और विविध पवित्र स्थलों पर स्नान करने से पूर्व जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं । कुछ पुराणों अनुसार काशी में रहकर तनिक भी पाप नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसके लिए बड़े ही कठोर दण्ड का विधान है। तीर्थस्थान होने के कारण यहाँ पूर्वजों अथवा पितरों का श्राद्ध और पिण्डदान किया जा सकता है, किन्तु तपस्वियों द्वारा काशी में मठों का निर्माण अधिक प्रशंसनीय है । साथ ही यह भी कहा जाता है कि प्रत्येक काशीवासी को प्रतिदिन मणिकर्णिका घाट पर गङ्गा स्नान करके विश्वेश्वर का दर्शन करना चाहिए। त्रिस्थली सेतु ( पृ० १६८ ) में कहा गया है कि किसी अन्य स्थल पर किये गये पाप काशी आने पर नष्ट हो जाते हैं । किन्तु काशी में किये गये पाप दारुण यातनादायक होते हैं । जो काशी में रहकर पाप करता है वह पिशाच हो जाता है । वहाँ इस अवस्था में सहस्रों वर्षों तक रहकर परमज्ञान को प्राप्त होता है, तदुपरान्त उसे मोक्ष For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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