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________________ एकतीर्थी-एकलिङ्गजी १४१ है तब वह द्विज अर्थात् द्विजन्मा होता है । शूद्र का यह एकनाथी भागवत-एकनाथजी द्वारा भागवतपुराण का संस्कार नहीं होता। मराठी भाषा में रचा गया छन्दोबद्ध रूपान्तर । यह अपनी एकतीर्थी—जिसका समान तीर्थ (गुरु) हो, सतीर्थ्य, सहपाठी, भावपूर्ण अभिव्यक्ति, रहस्य भेदन तथा हृदयग्राहकता के गरुभाई। धर्मशास्त्र में एकतीर्थी होने के अधिकारों और लिए प्रसिद्ध है। दायित्वों का वर्णन है। एकपाद-एक प्रकार का व्रत । योग के अनेक आत्मशोधक एकदन्त-जिसके एक दाँत हो, गणेश । परशुराम के द्वारा तथा मन को बाह्य वस्तुओं से हटाकर एकाग्र करने के इनके उखाड़े गये दाँत की कथा ब्रह्मवैवर्तपुराण में इस साधनों में से यह भी एक शारीरिक क्रिया है । इसमें लम्बी प्रकार है-एक समय एकान्त में बैठे हुए शिव-पार्वती के अवधि (कई सप्ताह) तक एक पाँव पर खड़े रहने का द्वारपाल गणेशजी थे। उसी समय उनके दर्शन के लिए विधान है। परशराम आये । शिवदर्शन के लिए लालायित होने पर एकपिङ्ग-यक्षराज कुबेर । उनके पिङ्गल नेत्र की कथा भी गणेशजी ने उन्हें भीतर नहीं जाने दिया। इस पर स्कन्दपुराण के काशीखण्ड में कही गयी है। गणेशजी के साथ उनका तुमुल युद्ध हुआ। परशुराम के एकभक्त व्रत-जिसमें एक बार भोजन का विधान हो उसको द्वारा फेंके गये परशु से गणेशजी का एक दाँत टूट गया। एकभक्त व्रत कहते हैं। रात्रि में भोजन न करके केवल उस समय से गणेशजी एकदन्त कहलाने लगे। दिन में भोजन करना भी एकभक्त कहलाता है। एकदण्डी-शङ्कराचार्य द्वारा स्थापित दसनामी संन्यासियों स्कन्दपुराण में लिखा है : में से प्रथम तीन (तीर्थ, आश्रम एवं सरस्वती) विशेष दिनार्धसमयेऽतीते भुज्यते नियमेन यत् । सम्मान्य माने जाते है । इनमें केवल ब्राह्मण ही सम्मिलित एकभक्तमिति प्रोक्तं रात्रौ तन्न कदाचन ।। हो सकते हैं । शेष सात वर्गों में अन्य वर्गों के लोग भी [दिन का आधा समय व्यतीत हो जाने पर नियम से आ सकते है, किन्तु दण्ड धारण करने के अधिकारी जो भोजन किया जाय उसे एकभक्त कहा जाता है। ब्राह्मण ही हैं । इसका दीक्षावत इतना कठिन होता है कि वह भोजन रात्रि में पुनः नहीं होता। ] इस व्रत का बहुत से लोग दण्ड के बिना ही रहना पसन्द करते हैं। नियम और फल विष्णुधर्मोत्तर में कहा गया है। इन्हीं संन्यासियों को 'एकदण्डी' कहते हैं। इसके विरुद्ध श्रीवैष्णव संन्यासी (जिनमें केवल ब्राह्मण ही सम्मिलित एकलिङ्ग-एक ही देवमूर्ति वाला स्थान । यह शिव का होते हैं) त्रिदण्ड धारण करते हैं। दोनों सम्प्रदायों में पर्याय है । आगम में लिखा है : अन्तर स्पष्ट करने के लिए इन्हें 'एकदण्डी' तथा पञ्चक्रोशान्तरे यत्र न लिङ्गान्तरमीक्ष्यते । 'त्रिदण्डी' नामों से पुकारते हैं। तदेकलिङ्गमाख्यातं तत्र सिद्धिरनुत्तमा ॥ एकदंष्ट्र-दे० 'एकदन्त' । [पाँच कोश के भीतर जहाँ पर एक ही लिङ्ग हो दूसरा न हो, उसे एकलिङ्ग स्थान कहा गया है। वहाँ एकनाथ-मध्ययुगीन भारतीय सन्तों में एकनाथ का नाम तप करने से उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है।] बहुत प्रसिद्ध है। महाराष्ट्रीय उच्च भक्तों में नामदेव के पश्चात् दूसरा नार एकनाथ का ही आता है। इनकी एकलिङ्गजी--राजस्थान का प्रसिद्ध शैव तीर्थस्थान । मृत्यु १६०८ ई० में हुई । ये वर्ण से ब्राह्मण थे तथा पैठन उदयपुर से नाथद्वारा जाते समय मार्ग में हल्दीघाटी में रहते थे। इन्होंने जातिप्रथा के विरुद्ध आवाज उठायी और एकलिङ्गजी का मन्दिर पड़ता है। उदयपुर से तथा अनुपम साहस के कारण कष्ट भी सहा । इनकी यह १२ मील है। एकलिङ्गजी की मूर्ति में चारों ओर प्रसिद्धि भागवतपुराण के मराठी कविता में अनुवाद के मुख हैं अर्थात् यह चतुर्मुख लिङ्ग है। एकलिङ्गजी कारण हुई। इसके कुछ भाग पंढरपुर के मन्दिर में मेवाड़ के महाराणाओं के आराध्य देव है। पास में इन्द्रसंकीर्तन के समय गाये जाते हैं। इन्होंने 'हरिपद' नामक सागर नामक सरोवर है। आस-पास में गणेश, लक्ष्मी, छब्बीस अभंगों का एक संग्रह भी रचा । दार्शनिक दृष्टि से डुटेश्वर धारेश्वर आदि कई देवताओं के मन्दिर हैं । पास ये अद्वैतवादी थे । में ही वनवासिनी देवी का मन्दिर भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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