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________________ १३८ उद्गाता तथा उसके सहायक प्रस्तोता एवं दूसरे सहायक प्रतिहर्ता के कार्य यज्ञों के परवर्ती काल की याद दिलाते हैं । ब्राह्मण काल में यज्ञों का रूप जब और भी विकसित एवं जटिल हुआ तब सोलह पुरोहित होने लगे, जिनमें नये ऋत्विक् थे अच्छावाक्, ग्रावस्तुत्, उन्नेता तथा सुब्रह्मण्य, जो औपचारिक तथा कार्यविधि के अनुसार चार-चार भागों में बटे हुए थे― होता, मैत्रावरुण, अच्छावाक् तथा ग्रावस्तुत्; उद्गाता, प्रस्तोता प्रतिहर्ता तथा सुत्रह्मण्य अध्वर्यु, प्रतिस्थाता, नेष्टा तथा उन्नेता और ब्रह्मा ब्राह्मणाच्छंसी, आग्नीध्र तथा पोता । इनके अतिरिक्त एक पुरोहित और होता था जो राजा के सभी धार्मिक कर्तव्यों का आध्यात्मिक परामर्शदाता था। यह पुरोहित बड़े यज्ञों में ब्रह्मा का स्थान ग्रहण करता था तथा सभी याज्ञिक कार्यों का मुख्य निरीक्षक होता था । यह पुरोहित प्रारंभिक काल में होता होता था तथा सर्वप्रथम मन्त्रों का गान करता था । पश्चात् यही ब्रह्मा का स्थान लेकर यज्ञनिरीक्षक का कार्य करने लगा । ऋतुमती ऋतुयुक्त स्त्री उसके पर्याय हैं (१) रजस्वला, (२) स्त्रीधर्मिणी, (३) अवी, (४) आत्रेयी, (५) मलिनी, (६) पुष्पवती और (७) उदक्या धर्मशास्त्र में ऋतुमती के कर्तव्यों का वर्णन है। उसे इस काल में सब कार्यों से अलग होकर एकान्त में रहना चाहिए। पति के लिए भी यह नियम है कि वह प्रथम चार दिन पत्नी का स्पर्श न करे । पत्नी का यह कर्तव्य है कि वह स्नान के पति की कामना करे। पति के लिए ऋतुकाल दिन बाद पत्नी के पास जाना अनिवार्य है ऋतुस्नातां तु यो भार्या सन्निधी नोपगच्छति । घोरायां ब्रह्महत्यायां युज्यते नात्र संशयः ॥ (मनु० ४.१५) ऋतुस्नान रजस्वला स्त्री का चौथे दिन किया जाने वाला स्नान इस स्नान के पश्चात् पति का मूल देखना चाहिए | पति के समीप न होने पर पति का मन में ध्यान करके सूर्य का दर्शन कर लेना चाहिए ऐसा धर्मशास्त्र में विधान है। पश्चात् के चार ऋतुव्रत- हेमाद्रि, व्रतखण्ड (२.८५८-८६१) में पांच ऋतुव्रतों का उल्लेख है जिनका निर्देश यथा स्थान किया गया है । Jain Education International ऋभु ऋतुमतीषि देव वायुस्थानीय देवगण ऋग्वेद (९.२१.६ ) में कथन है : 'ऋभुर्न रथ्यं नवं दधतो केतुमादिशे ।' महाभारत के वनपर्व में ऋभुओं को देवताओं का भी देवता कहा गया है : ऋभवो नाम तत्रान्ये देवानामपि देवताः । तेषां लोकाः परतरे यान्यजन्तीह देवताः || [ ऋभु देवताओं के भी देव हैं । उनके लोक बहुत परे हैं, जिनके लिए यहाँ देवता लोग यज्ञ करते हैं । ] ऋष्यशृङ्ग - विभाण्डक ऋषि के पुत्र, एक ऋषि । उनकी पत्नी राजा लोमपाद की कन्या शान्ता थी । वीरशैव या लिङ्गायतों के ऋष्यश्वङ्ग नामक एक प्राचीन आचार्य भी थे । ऋषभध्वज - शिव का एक पर्याय, उनकी ध्वजा में ऋषभ (बैल) का चिह्न रहता है । ऋषि - वेद; ज्ञान का प्रथम प्रवक्ता परोक्षदर्शी, दिव्य दृष्टि वाला । जो ज्ञान के द्वारा मन्त्रों को अथवा संसार की चरम सीमा को देखता है यह ऋषि कहलाता है। उसके सात प्रकार हैं- (१) व्यास आदि महर्षि, (२) भेल आदि परमर्षि (1) कण्व आदि देवर्षि, (४) वसिष्ठ आदि ब्रह्मर्षि, (५) सुश्रुत आदि श्रुतर्षि, (६) ऋतुपर्ण आदि राजर्षि, (७) जैमिनि आदि काण्डर्षि । रत्नकोष में भी कहा गया है : सप्त ब्रह्मदेव महर्षि-परमर्षयः 1 काण्डषिश्च श्रुतश्चि राजर्षिश्च क्रमावराः ॥ [ ब्रह्मर्षि, देवर्षि महर्षि परमर्षि काण्डर्षि, श्रुतपि, राजर्षि ये सातों क्रम से अवर हैं । ] 1 सामान्यतः वेदों की ऋचाओं का साक्षात्कार करने वाले लोग ऋषि कहे जाते थे ( ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः ) । ऋग्वेद में प्रायः पूर्ववर्ती गायकों एवं समकालीन ऋषियों का उल्लेख है। प्राचीन रचनाओं को उत्तराधिकार में प्राप्त किया जाता था एवं ऋषिपरिवारों द्वारा उनको नया रूप दिया जाता था। ब्राह्मणों के समय तक ऋचाओं की रचना होती रही । ऋषि, ब्राह्मणों में सबसे उच्च एवं आदरणीय थे तथा उनकी कुशलता की तुलना प्रायः त्वष्टा से की गयी है जो स्वर्ग से उतरे माने जाते थे । निस्सन्देह ऋषि वैदिककालीन कुलों, राजसभाओं तथा सम्भ्रान्त लोगों से सम्बन्धित होते थे। कुछ राजकुमार For Private & Personal Use Only 7 www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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