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________________ १३० । देवप्रसादी चन्दन, रोली, गंगा की या तुलसीमूल की रज या आरती की भस्म से भी ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक किया जाता है । प्रसादी कुंकुम या रोली से मस्तक के मध्य एक रेखा बनाना लक्ष्मी या श्री का रूप कहा जाता है । पत्राकार दो रेखाएँ बनाना भगवान् का चरणचिह्न माना जाता है। ॐकार की चौथी मात्रा अर्धचन्द्र और बिन्दु के लम्ब रूप में भी वह होता है ऊर्ध्वमे - शिव का एक पर्याय इसका शाब्दिक अर्थ है। जिसका मेद्र (लिङ्ग) ऊपर की ओर हो। लिङ्ग निर्वात स्थान में स्थिर दीपशिखा के समान निश्चित ज्ञान का प्रतीक है। शिव ज्ञान के सन्दोह हैं । स्कन्द पुराण आदि कई ग्रन्थों में ऊर्ध्वमेढ़ शिव की कथाएँ पायी जाती हैं । ऊर्ध्वरेता-अखण्ड ब्रह्मचारी जिसका वीर्य नीचे पतित न होकर देह के ऊपरी भाग में स्थिर हो जाय। सनकादि, शुकदेव, नारद, भीष्म आदि। भीष्म ने पिता के अभीष्ट विवाह के लिए अपना विवाह त्याग दिया । अतः वे आजीवन ब्रह्मचारी रहने के कारण ऊर्ध्वरेता नाम से ख्यात हो गये । यह शंकर का भी एक नाम है : करिता ऊर्ध्वलिङ्ग कशायी नभःस्थलः । [ ऊर्ध्वरेता, ऊर्ध्वलिङ्ग, ऊर्ध्वशायी, नभस्थल । ] ऊषीमठ — हिमालय प्रदेश का एक तीर्थ स्थल । जाड़ों में केदारक्षेत्र हिमाच्छादित हो जाता है। उस समय केदार नाथजी की चल मूर्ति यहाँ आ जाती है । यहीं शीतकाल भर उनकी पूजा होती है । यहाँ मन्दिर के भीतर बदरीनाथ, तुङ्गनाथ, ओंकारेश्वर, केदारनाथ, ऊष्ण, अनिरुद्ध, मान्धाता तथा सत्ययुग त्रेता द्वापर की मूर्तियाँ एवं अन्य कई मूर्तियां है। ऋ ऋ - स्वरवर्ण का सप्तम अक्षर कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक माहात्म्य अधोलिखित है : ऋकारं परमेशानि कुण्डली मूर्तिमान् स्वयम् । अत्र ब्रह्मा च विष्णुश्च रुद्रश्चैव वरानने ॥ सदा शिवतं वर्ण सदा ईश्वर संयुतम् । पञ्च वर्णमयं वर्ण चतुर्ज्ञानमयं तथा ।। रक्तविद्युल्लताकारं ऋकारं प्रणमाम्यहम् || [ हे देवी! ऋ अक्षर स्वयं मूर्तिमान् कुण्डली है । इसमें ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र सदा वास करते हैं । यह सदा शिव Jain Education International ऊर्ध्वमेढ्र-ऋक्थ युत और ईश्वर से संयुक्त रहता है। यह पञ्चवर्णमय तथा चतुर्ज्ञानमय है, रक्त विद्युत् की लता के समान है । इसको प्रणाम करता हूँ । ] वर्णोद्वार तन्त्र में इसके निम्नांकित नाम बतलाये गये हैं : ऋ पूर्दोषमुखी रुद्रो देवमाता त्रिविक्रमः । भावभूतिः क्रिया क्रूरा रेविका नाशिका भूतः ॥ एकपाद शिरो माला मण्डला शान्तिनी जलम् । कर्णः कामलता मेघा निवृत्तिगंणनायकः ॥ रोहिणी शिवदूती च पूर्णगिरिव सप्तमे । ऋ - प्राचीन वैदिक काल में देवताओं के सम्मानार्थ उनकी जो स्तुतियाँ की जाती थीं, उन्हें ऋक् या ऋचा कहते थे । ऋग्वेद ऐसी ही ऋचाओं का संग्रह है । इसी लिए इसका यह नाम पड़ा। दे० 'ऋग्वेद' । अथर्वसंहिता के मत से यज्ञ के उच्छिष्ट (शेष) में से यजुर्वेद के साथ-साथ ऋक्, साम, छन्द और पुराण उत्पन्न हुए। बृहदारण्यक उ० और शतपथ ब्राह्मण में लिखा है : 'गीली लकड़ी में से निकलती हुई अग्नि से जैसे अलगअलग धुआं निकलता है, उसी तरह उस महाभूत के निःश्वास से ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्वाङ्गिरस, इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद्, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान और अनु व्याख्यान निकलते हैं: ये सभी इसके निःश्वास हैं ।' ऋक् ज्यौतिष - ज्योतिर्वेदाङ्ग पर तीन ग्रन्थ बहुत प्राचीन काल के मिलते हैं। पहला ऋज्योतिष, दूसरा यजुः ज्योतिष और तीसरा अथर्व ज्यौतिष । ऋक् ज्यौतिष के लेखक लगध है। इसको 'वेदाङ्गज्योतिष' भी कहते है । ऋषय पैतृक धन, सुवर्ण हिरण्यं द्रविणं चुम्नं विनममुक्यं धनं वसु । --- (शब्दार्णव) (याज्ञवल्क्य) 'ऋक्यमूलं हि कुटुम्बम् ।' [ पैतृक सम्पत्ति हो कुटुम्ब का मूल है । ] तात्पर्य यह है कि कुटुम्ब उन सदस्यों से बना है जिनका ऋभ पाने का अधिकार है । उन्हीं को इसका अधिकार होता है जो कौटुम्बिक धार्मिक क्रियाओं को करने के अधिकारी हैं । इसीलिए धर्मपरिवर्तन करने वालों को क्य पाने का अधिकार नहीं था। अब धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था में धर्मपरिवर्तन ऋक्थ प्राप्ति में बाधक नहीं है । प्रातिशाख्य वेदों के अनेक प्रकार के स्वरों, उच्चारण, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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