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________________ इरा-इष्टापूर्त १०३ पुरोहित के रूप में हुआ है, यद्यपि यह सम्माननीय पद गन्धमादन पवर्त है (दे० भागवतपुराण) । अग्नीध्र (पञ्चाल ऐतरेय ब्राह्मण (८.२१) में तुरकावषेय को प्राप्त है। के राजा) के प्रसिद्ध पुत्र का नाम भी इलावृत था, जिसको जैमिनीय उपनिषद्ब्राह्मण (३.४०.१) में इन्द्रोत दैवाप पिता से राज्य रिक्थ में मिला। दे० विष्णपराण, शौनक श्रुत के शिष्य के रूप में उल्लिखित है तथा वंश- २.१.१६-१८ । ब्राह्मण में भी इसका उल्लेख है। किन्तु ऋग्वेद में इल्वल-सिंहिका का पुत्र एक दैत्य, जो वातापी का भाई उल्लिखित देवापि से इसका सम्बन्ध किसी भी प्रकार नहीं था। यह ब्राह्मणों का विनाश करने के लिए अपने भाई जोड़ा जा सकता। वातापी को मायारूपी मेष (भेड़) बनाकर और ब्राह्मणों इरा-कश्यप की एक पत्नी । दे० गरुडपुराण, अध्याय ६ : । को भोज में निमन्त्रण देकर खिला देता था । पुनः वातापी धर्मपल्ल्यः समाख्याता कश्यपस्य वदाम्यहम् । को बुलाता था । वातापी उनका पेट फाड़कर निकल आता अदितिदितिर्दनुः काला अमायुः सिंहिका मुनिः ।। था। इससे सहस्रों ब्राह्मणों की मृत्यु हुई । अगस्त्य ऋषि कद्रुः प्राधा इरा क्रोधा विनता सुरभिः खशा॥ को अपने पितरों को इस दशा से बहुत कष्ट हुआ। वे उस इरा से वृक्ष, लता, वल्लो तथा तृण जाति की उत्पत्ति दिशा को गये (दे० 'अगस्ति') । इल्वल ने उनको भी निमन्त्रण दिया और वातापी को मेष बनाकर उसका मांस इरावती-भारत की देवनदियों में इसकी गणना है : उनको खिलाया । उसके बाद उसने वातापी को पुकारा । किन्तु अगस्त्य के पेट से केवल अपना वायु निकला। विपाशा च शतद्रुश्च चन्द्रभागा सरस्वती । इरावती वितस्ता च सिन्धुर्देवनदी तथा।। उन्होंने हँसते हुए कहा कि वातापी तो जीर्ण (पक्व) हो (महाभारत) गया; अब निकल नहीं सकता। दे० महाभारत, वनपर्व, [ विपाशा (व्यास ), शतद्रु ( सतलज ), चन्द्रभागा अगस्त्योपाख्यान, ९६ अध्याय । (चिनाव), सरस्वती ( सरसुती ), इरावती ( रावी), इष्ट-वेदी या मण्डप के अन्दर करने लायक धार्मिक कर्म; वितस्ता ( झेलम ) तथा सिन्धु (अपने नाम से अब भी होम, यज्ञ; अभीष्ट देवता, आराधित देवता; किसी घटना प्रसिद्ध) ये देवनदियाँ हैं ।] का घड़ी-पलों में निर्धारित समय । दे० 'यज्ञ' । इल-दे० 'उमावन'। इष्टजात्यवाप्ति-विष्णुधर्मोत्तर ( ३.२००.१-५ ) के अनुइला–पौराणिक कथा के अनुसार इला मूलतः मनु का पुत्र सार इस व्रत का अनुष्ठान चैत्र तथा कार्तिक के प्रारम्भ में इल था। इल भूल से इलावर्त में भ्रमण करते हुए करना चाहिए, ऋग्वेद के दशम मण्डल के ९०.१-१६ मन्त्रों शिवजी के काम्यकवन में चला गया। शिवजी ने शाप से हरि का षोडशोपचार के साथ पूजन होना चाहिए। दिया था कि जो पुरुष काम्यकवन में आयेगा वह स्त्री हो व्रत के अन्त में गौ का दान विहित है। जायगा । अतः इल स्त्री इला में परिवर्तित हो गया। इष्टसिद्धि-इस नाम के दो ग्रन्थों का पता चलता है। प्रथम इला का विवाह सोम (चन्द्रमा) के पुत्र बुध से हुआ। इस सुरेश्वराचार्य अथवा मण्डन मिश्र कृत है, जिसको सम्बन्ध से पुरूरवा का जन्म हुआ, जो ऐल कहलाया। उन्होंने संन्यास लेने के पश्चात् लिखा और जिसमें शाङ्कर इससे ऐल अथवा चन्द्रवंश की परम्परा आरम्भ हुई, मत का ही समर्थन है। द्वितीय, अविमुक्तात्मा द्वारा कृत जिसकी राजधानी प्रतिष्ठान (वर्तमान झूसी, अरैल, प्रयाग) है, जिसमें शब्दाद्वैत मत का उल्लेख मिलता है । थी। विष्णु की कृपा से इला पुनः पुरुष हो गयी जिसका इष्टापूर्त-धार्मिक कर्मों के दो प्रमुख विभाग हैं-(१) इष्ट नाम सुद्युम्न था। और (२) पूर्त । इष्ट का सम्बन्ध यज्ञादि कृत्यों से है, इलावृत (इलावत)-इसका शाब्दिक अर्थ है इला के जिनका फल अदृष्ट है । पूर्त का सम्बन्ध लोकोपकारी आवर्तन (परिभ्रमण) का स्थान । यह जम्बू द्वीप के नव कार्यों से है, जिनका फल दृष्ट है। मलमासतत्त्व में उद्वर्षों (देशों) के अन्तर्गत एक वर्ष है जो सुमेरु पर्वत । धृत जातुकर्ण्य का कथन है : (पामीर) को घेर कर स्थित है। इसके उत्तर में नील अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानाञ्चानुपालनम् । पर्वत, दक्षिण में निषध, पश्चिम में माल्यवान् तथा पूर्व में आतिथ्यं वैश्वदेवञ्च इष्टमित्यभिधीयते ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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