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________________ १०० इवावत्सर-इन्द्र क्रिया का वर्णन पुराण कहलाता है। बृहदारण्यक के भाष्य में शङ्कराचार्य ने भी लिखा है कि उर्वशी-पुरूरवा आदि संवाद स्वरूप ब्राह्मणभाग को इतिहास कहते हैं और "पहले असत् ही था" इत्यादि सृष्टि-प्रकरण को पुराण कहते हैं। इन बातों से स्पष्ट है कि सर्गादि का वर्णन पुराण कहलाता था और लौकिक कथाएँ इतिहास कही जाती थीं। इदावत्सर-वाजसनेयी संहिता (२७.४५) के अनुसार एक विशेष संवत्सर है : "संवत्सरोऽसि परिवत्सरोऽसि इदावत्सरोऽसि इद्वत्सरोऽसि ।" विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अनुसार इस संवत्सर में अन्न और वस्त्र का दान पुण्यकारक होता है। ज्योतिष की गणना में 'पंचवर्षात्मक युग' मान्यता के अनुसार वर्ष का एक प्रकार इदावत्सर है। इन्दु-चन्द्रमा। इसकी व्युत्पत्ति है : 'उनत्ति अमृतधारया भुवं क्लिन्नां करोति इति' | अमृत की धारा से पृथ्वी को भिगोता है, इसलिए 'इन्दु' कहलाता है। ] इन्दुव्रत-साठ संवत्सरवतों में से अट्ठावनवाँ व्रत । व्रती को किसी सपत्नीक सद्गृहस्थ का सम्मान करना चाहिए तथा वर्ष के अन्त में उसे गौ का दान करना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड; हेमाद्रि, व्रत खण्ड, २. ८८३ । इन्द्र-ऋग्वेद के प्रायः २५० सूक्तों में इन्द्र का वर्णन है तथा ५० सूक्त ऐसे हैं जिनमें दूसरे देवों के साथ इन्द्र का वर्णन है । इस प्रकार लगभग ऋग्वेद के चतुर्थांश में इन्द्र का वर्णन पाया जाता है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इन्द्र वैदिक युग का सर्वप्रिय देवता था। इन्द्र शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ अस्पष्ट है । अधिकांश विद्वानों की सम्मति में इन्द्र झंझावात का देवता है जो बादलों में गर्जन एवं बिजली की चमक उत्पन्न करता है। किन्तु हिलब्रण्ट के मत से इन्द्र सूर्य देवता है। वैदिक भारतीयों ने इन्द्र को एक प्रबल भौतिक शक्ति माना जो उनकी सैनिक विजय एवं साम्राज्यवादी विचारों का प्रतीक है। प्रकृति का कोई भी उपादान इतना शक्तिशाली नहीं जितना विद्युत्प्रहार । इन्द्र को अग्नि का जुड़वां भाई (ऋ ६.५९.२) कहा गया है जिससे विद्युतीय अग्नि एवं यज्ञवेदीय अग्नि का सामीप्य प्रकट होता है। इन्द्र की चरितावली में वृत्रवध का बड़ा महत्त्व है। (अधिकांश वैदिक विद्वानों का मत है कि वृत्र सूखा (अनावृष्टि) का दानव है और उन बादलों का प्रतीक है जो आकाश में छाये रहने पर भी एक बूद जल नहीं बरसाते । इन्द्र अपने वज्र प्रहार से वृत्ररूपी दानव का वध कर जल को मुक्त करता है और फिर पृथ्वी पर वर्षा होती है । ओल्डेनवर्ग एवं हिलब्रण्ट ने वृत्र-वध का दूसरा अर्थ प्रस्तुत किया है। उनका मत है कि पार्थिव पर्वतों से जल की मुक्ति इन्द्र द्वारा हुई है। हिलबॅण्ट ने सूर्यरूपी इन्द्र का वर्णन करते हुए कहा है : वृत्र शीत (सर्दी) एवं हिम का प्रतीक है, जिससे मुक्ति केवल सूर्य ही दिला सकता है। ये दोनों ही कल्पनाएँ इन्द्र के दो रूपों को प्रकट करती हैं, जिनका प्रदर्शन मैदानों के झंझावात और हिमाच्छादित पर्वतों पर तपते हुए सूर्य के रूप में होता है । वृत्र से युद्ध करने की तैयारी के विवरण से प्रकट होता है कि देवों ने इन्द्र को अपना नायक बनाया तथा उसे शक्तिशाली बनाने के लिए प्रभूत भोजन-पान आदि की व्यवस्था हई। इन्द्र प्रभूत सोमपान करता है। इन्द्र का अस्त्र वज्र है जो विद्युत्प्रहार का ही एक काल्पनिक नाम है। ऋग्वेद में इन्द्र को जहाँ अनावृष्टि के दानव वृत्र का वध करने वाला कहा गया है, वहीं उसे रात्रि के अन्धकार रूपी दानव का वध करनेवाला एवं प्रकाश का जन्म देने वाला भी कहा गया है। ऋग्वेद के तीसरे मण्डल के वर्णनानुसार विश्वामित्र के प्रार्थना करने पर इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु (सतलज) नदियों के अथाह जल को सूखा दिया, जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गयी। इन्द्र और वृत्र के आकाशीय युद्ध की चर्चा हो चुकी है। इन्द्र के इस युद्ध कौशल के कारण आर्यों ने पृथ्वी के दानवों से युद्ध करने के लिए भी इन्द्र को सैनिक नेता मान लिया । इन्द्र के पराक्रम का वर्णन करने के लिए शब्दों की शक्ति अपर्याप्त है। वह शक्ति का स्वामी है, उसकी एक सौ शक्तियाँ हैं । चालीस या इससे भी अधिक उसके शक्तिसूचक नाम हैं तथा लगभग उतने ही युद्धों का विजेता उसे कहा गया है। वह अपने उन मित्रों एवं भक्तों को भी वैसी विजय एवं शक्ति देता है, जो उस को सोमरस अर्पण करते हैं।। नौ सूकों में इन्द्र एवं वरुण का संयक्त वर्णन है। दोनों एकता धारण कर सोम का पान करते हैं, वृत्र पर विजय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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