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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश उत्सर्गापवाद सूत्र उदक वह सूत्र, जिसमें आचार-विषयक सामान्य और विशेष विधियों। वह वनस्पति, जो अनन्तकायिक है। का प्रतिपादन है। (बृभा ३२१) उदगं नाम अणंतवणण्फई। (द ८.११ जिचू पृ २७७) (द्र अपवादोत्सर्ग सूत्र) (द्र अनन्तजीव) उत्सर्पिणी उदधिकुमार असंख्य वर्षों का एक कालखण्ड जो दस कोटिकोटि अद्धा भवनपति देवों का एक वर्ग, जिसकी जंघा और कटिभाग सागरोपम प्रमाण होता है। समय (काल-चक्र) का आरोही अधिक सुन्दर होता है, जिसका चिह्न है-मकर। चक्र या क्रम। इसमें आयुष्य, शरीर आदि का परिमाण ऊरुकटिष्वधिकप्रतिरूपा: कृष्णश्यामा: मकरचिह्ना उदधिक्रमश: वृद्धिंगत हो जाता है। कुमाराः। (तभा ४.११) 'एगा उस्सप्पिणी'..."उत्सर्पति-उत्सर्पति-वर्द्धतेऽरकापेक्षया उत्सर्पति वा भावानायुष्कादीन् वर्द्धयतीति उत्सर्पिणी। उदय उदीरणाकरण के द्वारा अथवा स्वाभाविक रूप से आठों कर्मों (स्था १.१३४ वृ प २५) दस सागरोपम कोडाकोडीओ कालो उस्सण्णिी। का अनुभव होना। वेद्यावस्था उदयः। (भग ६/१३४) उदीरणाकरणेन स्वभावरूपेण वाष्टानामपि कर्मणामनुभवाउत्सारकल्प वस्था उदयः। (जैसिदी २.४९ ) सूत्र और अर्थ की परिपाटिवाचना (क्रमश: वाचना) से मुक्त होकर अविधि अथवा अक्रम-व्युत्क्रम से अध्ययन-अध्यापन उदयनिष्पन्न करना। औदयिक भाव, जो उदय में आकर किसी अन्य पर्याय को सूत्रार्थयोः परिपाटिवाचनां परित्यज्य सकलश्रुतधर्मधूम जन्म देता है। केतुकल्पमुत्सारकल्पम्। (बृभा ७२३ वृ) उदयनिष्फण्णो णाम उदिण्णेण जेण अण्णो निष्फादितो सो उदयणिण्फण्णो। (अनु २७४ चू पृ ४२) उत्सेधाङ्गल माप की एक इकाई। आठ यवमध्य प्रमाणवाला माप, जिससे उदयप्राप्त नैरयिक, तिर्यक्योनिक, मनुष्य और देवों के शरीर की। गति, स्थिति, पुद्गल-परिमाण आदि सामग्री को प्राप्त कर अवगाहना मापी जाती है। उदय में आने वाले कर्म-पुद्गल। अट्ठ जवमज्झा से एगे उस्सेहंगुले॥ (अनु ३९९) सामग्रीवशादुदयप्राप्तस्य। (प्रज्ञा २३.१३ वृ प ४५९) उस्सेहंगुलेणं नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवाणं सरीरो उदयबन्धोत्कृष्टा गाहणाओ मविजंति॥ (अनु ४०१) वह कर्म-प्रकृति, जो विपाकोदय प्रवर्त्तमान होने पर संक्रमण (द्र आत्माङ्गुल, प्रमाणाङ्गुल) आदि के बिना बंधकाल से ही उत्कृष्ट स्थिति वाली पाई उत्स्वेदिम जाती है। चतुर्थभक्त (उपवास) वाले मुनि के द्वारा ग्राह्य पानक का यासां प्रकृतीनां विपाकोदये सति बन्धादुत्कृष्टं स्थितिएक प्रकार। आटे का धोवन, वह पानी जो आटे से मिश्रित सत्कर्मावाप्यते ता: उदयबन्धोत्कृष्टाः। (कप्रप४५) हो। उदयवती उत्स्वेदेन निर्वृत्तमुत्स्वेदिमं-येन व्रीह्यादिपिष्टं....उत्सवेद्यतेः। वह कर्म-प्रकृति, जिसके दलिक चरम समय में अपने विपाक (स्था ३.३७६ वृ प १३७) रूप में भोगे जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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